पूर्णाहुति के पश्चात् हुतशेष हलुवे को वितरण करके भक्षण किया जाय । अपराह्न में स्व सुभीते के अनुसार आर्यसमाज मन्दिर आदि में सम्मिलित होकर हर्षोत्सव और प्रीतिसम्मेलन किया जाय । उससे पूर्व आर्य पुरुष आर्य बन्धुओं के घरों पर जा कर उनसे प्रेमसंवर्धनार्थं भेंट करें और उनके मध्य में किसी प्रकार का मनोमालिन्य हो तो उसको भी उदारतापूर्वक परस्पर क्षमा-याचना और क्षमाप्रदान द्वारा दूर कर देखें और वहाँ से मिल मिल कर स्वच्छ और प्रेमपूर्ण हृदय से युक्त होकर समाज-मन्दिर के उत्सव में पधारते रहें। इस हर्षोत्सव में सरल प्रीति-
भोज, ताम्बूलवितरण, गुलाबजलसिञ्चन वा कुसुमसार ( इत्र) संयोजन का आयोजन होना चाहिए । सुमधुर गीतवाद्य का भी अवश्य प्रबन्ध किया जाथ । उसमें उत्तमोत्तम उपदेशप्रद “होली” आदि सुन्दर पद्य गाए जायें। भारत की संगीत कला की उन्नति एवं समृद्धि उत्सवों द्वारा ही हो सकती है। संगीत से ही उत्सवों की अन्वर्थ उत्सवता स्थिर रह सकती है।