Swastivachanam & Shantikaranm (स्वस्तिवाचनम् एवं शान्तिकरणम्)

अथ स्वस्तिवाचनम्

(कल्याण के लिए प्रार्थना)

अथ= प्रारम्भ करना। स्वस्ति > सु+अस्ति= उत्तम स्थिति, अर्थात् कल्याणकारी जीवन। वाचनम्= उच्चारण करना, प्रार्थना करना। इस प्रकार अर्थ हुआ- कल्याण के लिए प्रार्थना का प्रारम्भ।

ईश्वर-स्तुति-प्रार्थना-उपासना के मन्त्रों का पाठ करके ‘स्वस्तिवाचन’ मंत्रों का पाठ, जन्मदिन, नामकरण, भवन का शिलान्यास, गृह प्रवेश, व्यापार का प्रारम्भ, रक्षाबन्धन, कृष्ण जन्माष्टमी, दीपावली, रामनवमी, साप्ताहिक सत्सङ्ग आदि विशेष अवसरों पर करना चाहिए।

ओ३म्। अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम् ।।१।।

ऋग्वेद १.१.१

ओ३म्। स न: पितेव सूनवेऽग्ने सूपायनो भव। सचस्वा न: स्वस्तये ।।२।।

ऋग्वेद १.१.९

ओ३म्। स्वस्ति नो मिमीतामश्विना भग: स्वस्ति देव्यदितिरनर्वण:।

स्वस्ति पूषा असुरो दधातु न: स्वस्ति द्यावापृथिवी सुचेतुना ।।३।।

ओ३म्। स्वस्तये वायुमुप ब्रवामहै सोमं स्वस्ति भुवनस्य यस्पति:।

बृहस्पतिं सर्वगणं स्वस्तये स्वस्तय आदित्यासो भवन्तु न: ।।४।।

ओ३म्। विश्वे देवा नो अद्या स्वस्तये वैश्वानरो वसुरग्नि: स्वस्तये।

देवा अवन्त्वृभव: स्वस्तये स्वस्ति नो रुद्र: पात्वंहस: ।।५।।

ओ३म्। स्वस्ति मित्रावरुणा स्वस्ति पथ्ये रेवति।

स्वस्ति न इन्द्रश्चाग्निश्च स्वस्ति नो अदिते कृधि ।।६।।

ओ३म्। स्वस्ति पन्थामनुचरेम सूर्याचन्द्रमसाविव।

पुनर्ददताघ्नता जानता सं गमेमहि ।।७।। ऋग्वेद ५.५१.११-१५

ओ३म्। ये देवानां यज्ञिया यज्ञियानां मनोर्यजत्रा अमृता ऋतज्ञा:।

ते नो रासन्तामुरुगायमद्य यूयं पात स्वस्तिभि: सदा न: ।।८।। ऋग्वेद ७.३५.१५

ओ३म्। येभ्यो माता मधुमत्पिन्वते पय: पीयूषं द्यौरदितिरद्रिबर्हा:।

उक्थशुष्मान् वृषभरान्त्स्वप्नसस्ताँ आदित्याँ अनुमदा स्वस्तये ।।९।।

ओ३म्। नृचक्षसो अनिमिषन्तो अर्हणा बृहद् देवासो अमृतत्वमानशु:।

ज्योतीरथा अहिमाया अनागसो दिवो वर्ष्माणं वसते स्वस्तये ।।१०।।

ओ३म्। सम्राजो ये सुवृधो यज्ञमाययुरपरिह्वृता दधिरे दिवि क्षयम्।

ताँ आ विवास नमसा सुवृक्तिभिर्महो आदित्याँ अदितिं स्वस्तये ।।११।।

ओ३म्। को व: स्तोमं राधति यं जु जोषथ विश्वेदेवासो मनुषो यतिष्ठन।

को वोऽध्वरं तुविजाता अरं करद्यो न: पर्षदत्यंह: स्वस्तये ।।१२।।

ओ३म्। येभ्यो होत्रां प्रथमामायेजे मनु: समिद्धाग्निर्मनसा सप्त होतृभि:।

त आदित्या अभयं शर्म यच्छत सुगा न: कर्त सुपथा स्वस्तये ।।१३।।

ओ३म्। य ईशिरे भुवनस्य प्रचेतसो विश्वस्य स्थातुर्जगतश्च मन्तव:।

ते न: कृतादकृतादेन सस्पर्यद्या देवास: पिपृता स्वस्तये ।।१४।।

ओ३म्। भरेष्विन्द्रं सुहवं हवामहेंऽहोमुचं सुकृतं दैव्यं जनम्।

अग्निं मित्रं वरुणं सातये भगं द्यावापृथिवी मरुत: स्वस्तये ।।१५।।

ओ३म्। सुत्रामाणं पृथिवीं द्यामनेहसं सुशर्माणमदितिं सुप्रणीतिम्।

दैवीं नावं स्वरित्रा मनागसमस्रवन्तीमा रुहेमा स्वस्तये ।।१६।।

ओ३म्। विश्वे यजत्रा अधि वोचतोतये त्रायध्वं नो दुरेवाया अभिह्रुत:।

सत्यया वो देवहूत्या हुवेम शृण्वतो देवा अवसे स्वस्तये ।।१७।।

ओ३म्। अपामीवामप विश्वामनाहुतिमपारातिं दुर्विदत्रामघायत:।

आरे देवा द्वेषो अस्मद्युयोतनोरुण: शर्म यच्छता स्वस्तये ।।१८।।

ओ३म्। अरिष्ट: स मर्तो विश्व एधते प्र प्रजाभिर्जायते धर्मणस्परि।

यमादित्यासो नयथा सुनीतिभिरति विश्वानि दुरिता स्वस्तये ।।१९।।

ओ३म्। यं देवासोऽवथ वाजसातौ यं शूरसाता मरुतो हिते धने।

प्रातर्यावाणं रथमिन्द्र सानसिमरिष्यन्तमा रुहेमा स्वस्तये ।।२०।।

ओ३म्। स्वस्ति न: पथ्यासु धन्वसु स्वस्त्यप्सु वृजने स्वर्वति।

स्वस्ति न: पुत्रकृथेषु योनिषु स्वस्ति राये मरुतो दधातन ।।२१।।

ओ३म्। स्वस्तिरिद्धि प्रपथे श्रेष्ठा रेक्णस्वत्यभि या वाममेति।

सा नो अमा सो अरणे निपातु स्वावेशा भवतु देवगोपा ।।२२।।

ओ३म्। इषे त्वोर्जे त्वा वायवस्थ देवो व: सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय
कर्मण आप्यायध्वमघ्न्या इन्द्राय भागं प्रजावतीरनमीवा अयक्ष्मा मा व स्तेन ईशत
माघशसो ध्रुवा अस्मिन् गोपतौ स्यात बह्वीर्यजमानस्य पशून् पाहि ।।२३।।

ओ३म्। आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासो अपरीतास उद्भिद:।

देवा नो यथा सदमिद्वृधे असन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवे दिवे ।।२४।।

ओ३म्। देवानां भद्रा सुमतिर्ऋजूयतां देवानां रातिरभि नो निवर्तताम्।

देवानां सख्यमुपसेदिमा वयं देवा न आयु: प्रतिरन्तु जीवसे ।।२५।।

ओ३म्। तमीशानं जगतस्तस्थुषस्पतिं धियञ्जिन्वमवसे हूमहे वयम्।

पूषा नो यथा वेदसामसद्वृधे रक्षिता पायुरदब्ध: स्वस्तये ।।२६।।

ओ३म्। स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवा: स्वस्ति न: पूषा विश्ववेदा:।

स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमि: स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ।।२७।।

ओ३म्। भद्रं कर्णेभि: शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्रा:।

स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवां सस्तनूभिर्व्यशेमहि देवहितं यदायु: ।।२८।।

ओ३म्। अग्न आ याहि वीतये गृणानो हव्य दातये।

नि होता सत्सि बर्हिषि ।।२९।।

ओ३म्। त्वमग्ने यज्ञानां होता विश्वेषां हित:।

देवेभिर्मानुषे जने ।।३०।।

सामवेद पूर्वार्चिक प्रपाठक १

ओ३म्। ये त्रिषप्ता: परियन्ति विश्वा रूपाणि बिभ्रत:।

वाचस्पतिर्बला तेषां तन्वो अद्य दधातु मे ।।३१।।

भावार्थ- हे ज्ञान स्वरूप प्रभो! हम कल्याण के लिए आपकी स्तुति करते हैं। आप सबके पालक, रक्षक, न्यायकारी, चराचर संसार के स्वामी, लोक-लोकान्तरों के निर्माता, दुष्टों को कर्मफल देकर रुलाने वाले, श्रेष्ठों के मित्र, ऐश्वर्यशाली और प्रकाश स्वरूप हो। आपकी कृपा से हम सुख और आनन्द के सागर में गोते लगाते रहें। हे दया के सागर! आपकी दया से कल्याण के झरने झरते रहें, खुशियों के गान होते रहें, आनन्द की गङ्गा बहती रहे और हम उपासक आत्मविभोर होकर आपके गीत गाते रहें।

हे कल्याण के भण्डार प्रभो! हमें सब प्रकार का कल्याण प्रदान करो। सूर्य, चन्द्रमा, वायु, अग्नि, जल, विद्युत्, मेघ, पृथिवी, अन्तरिक्ष आदि सभी दिव्य शक्तियाँ हमारा कल्याण करें। हम कानों से कल्याणकारी मधुर वचनों को सुनें, आँखों से कल्याण को ही देखें।

हे दयालु देव! ऐसी दया करो कि हम सरल स्वभाव वाले परोपकारी, उदारचेता, विद्वानों, वैज्ञानिकों के सत्कार और सम्पर्क से ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा लेकर यशस्वी, ऐश्वर्यशाली और दीर्घजीवी हों। हमारे घर धन-धान्य से भरे हुए, सुन्दर और सुखदायक हों। हमें सुदृढ़ शरीर, उत्तम बुद्धि और उत्तम सन्तान प्रदान करो।

हे प्रभो! हम यज्ञ रूपी नौका में बैठकर, शुभ संकल्प वाले होकर, श्रेष्ठ कर्म करते हुए, संसार सागर को पार करके शान्ति के परम धाम मोक्ष को प्राप्त करें। यही हमारी कामना है, यही प्रार्थना है, यही याचना है। हे सर्वेश्वर! स्वीकार करो, स्वीकार करो, स्वीकार करो।

।। इति स्वस्तिवाचनम् ।।

अथ शान्तिकरणम्

(शान्ति के लिए प्रार्थना)

अथ= प्रारम्भ। शान्ति= सब प्रकार के दु:ख, सन्ताप और उपद्रवों को दूर करके शान्ति को। करणम्= प्राप्त करना। इस प्रकार अर्थ हुआ- शान्ति के लिए प्रार्थना का प्रारम्भ। ईश्वर-स्तुति-प्रार्थना-उपासना के मन्त्रों का पाठ करके ‘स्वस्तिवाचन’ एवं ‘शान्तिकरण’ मंत्रों का पाठ जन्मदिन, नामकरण, भवन का शिलान्यास, गृह प्रवेश, व्यापार का प्रारम्भ, रक्षाबन्धन, कृष्ण जन्माष्टमी, दीपावली, रामनवमी, साप्ताहिक सत्सङ्ग आदि विशेष अवसरों पर करना चाहिए।

ओ३म्। शं न इन्द्राग्नी भवतामवोभि: शं न इन्द्रावरुणा रातहव्या।

शमिन्द्रासोमा सुविताय शं यो: शं न इन्द्रापूषणा वाजसातौ ।।१।।

ओ३म्। शं नो भग: शमु न: शंसो अस्तु शं न: पुरन्धि: शमु सन्तु राय:।

शं न: सत्यस्य सुयमस्य शंस: शं नो अर्यमा पुरुजातो अस्तु ।।२।।

ओ३म्। शं नो धाता शमु धर्ता नो अस्तु शं न उरूची भवतु स्वधाभि:।

शं रोदसी बृहती शं नो अद्रि: शं नो देवानां सुहवानि सन्तु ।।३।।

ओ३म्। शं नो अग्निर्ज्योतिरनीको अस्तु शं नो मित्रावरुणावश्विना शम्।

शं न: सुकृतां सुकृतानि सन्तु शं न इषिरो अभिवातु वात: ।।४।।

ओ३म्। शं नो द्यावापृथिवी पूर्वहूतौ शमन्तरिक्षं दृशये नो अस्तु।

शं न ओषधीर्वनिनो भवन्तु शं नो रजसस्पतिरस्तु जिष्णु: ।।५।।

ओ३म्। शं न इन्द्रो वसुभिर्देवो अस्तु शमादित्येभिर्वरुण: सुशंस:।

शं नो रुद्रो रुद्रेभिर्जलाष: शं नस्त्वष्टाग्नाभिरिह शृणोतु ।।६।।

ओ३म्। शं न: सोमो भवतु ब्रह्म शं न: शं नो ग्रावाण: शमु सन्तु यज्ञा:।

शं न: स्वरूणां मितयो भवन्तु शं न: प्रस्व: शम्वस्तु वेदि: ।।७।।

ओ३म्। शं न: सूर्य उरुचक्षा उदेतु शं नश्चतस्र: प्रदिशो भवन्तु।

शं न: पर्वता ध्रुवयो भवन्तु शं न: सिन्धव: शमु सन्त्वाप: ।।८।।

ओ३म्। शं नो अदितिर्भवतु व्रतेभि: शं नो भवन्तु मरुत: स्वर्का:।

शं नो विष्णु: शमु पूषा नो अस्तु शं नो भवित्रं शम्वस्तु वायु: ।।९।।

ओ३म्। शं नो देव: सविता त्रायमाण: शं नो भवन्तूषसो विभाती:।

शं न: पर्जन्यो भवतु प्रजाभ्य: शं न: क्षेत्रस्य पतिरस्तु शम्भु: ।।१०।।

ओ३म्। शं नो देवा विश्वदेवा भवन्तु शं सरस्वती सह धीभिरस्तु।

शमभिषाच: शमु रातिषाच: शं नो दिव्या: पार्थिवा: शं नो अप्या: ।।११।।

ओ३म्। शं न: सत्यस्य पतयो भवन्तु शं नो अर्वन्त: शमु सन्तु गाव:।

शं न ऋभव: सुकृत: सुहस्ता: शं नो भवन्तु पितरो हवेषु ।।१२।।

ओ३म्। शं नो अज एकपाद् देवो अस्तु शं नोऽहिर्बुध्न्य: शं समुद्र:।

शं नो अपां नपात् पेरुरस्तु शं न: पृश्निर्भवतु देवगोपा ।।१३।।

ऋग्वेद ७.३५.१-१३

ओ३म्। इन्द्रो विश्वस्य राजति। शं नो अस्तु द्विपदे शं चतुष्पदे ।।१४।। यजुर्वेद ३६.८

ओ३म्। शं नो वात: पवतां शं नस्तपतु सूर्य:।

शं न: कनिक्रदद्देव: पर्जन्योऽ अभि वर्षतु ।।१५।।

ओ३म्। अहानि शं भवन्तु न: शरात्री: प्रति धीयताम्।

शं न इन्द्राग्नी भवतामवोभि: शं न इन्द्रावरुणा रातहव्या।

शं न इन्द्रा पूषणा वाजसातौ शमिन्द्रासोमा सुविताय शं यो: ।।१६।।

ओ३म्। शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये।

शंयोरभि स्रवन्तु न: ।।१७।।

यजुर्वेद ३६.१०-१२

ओ३म्। द्यौ: शान्तिरन्तरिक्ष शान्ति: पृथिवी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वेदेवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति: सर्व शान्ति: शान्तिरेव शान्ति: सा मा शान्तिरेधि ।।१८।। यजुर्वेद ३६.१७

ओ३म्। तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्। पश्येम शरद: शतं जीवेम शरद: शत शृणुयाम शरद: शतं प्रब्रवाम शरद: शतमदीना: स्याम शरद: शतं भूयश्च शरद: शतात् ।।१९।। यजुर्वेद ३६.२४

ओ३म्। यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति।

दूरङ्गमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मन: शिवसङ्कल्पमस्तु ।।२०।।

ओ३म्। येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीरा:।

यदपूर्वं यक्षमन्त: प्रजानां तन्मे मन: शिवसङ्कल्पमस्तु ।।२१।।

ओ३म्। यत् प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च यज्ज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु।

यस्मान्न ऋते किञ्चन कर्म क्रियते तन्मे मन: शिवसङ्कल्पमस्तु ।।२२।।

ओ३म्। येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत् परिगृहीतममृतेन सर्वम्।

येन यज्ञस्तायते सप्त होता तन्मे मन: शिवसङ्कल्पमस्तु ।।२३।।

ओ३म्। यस्मिन्नृच: साम यजूंषि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथनाभाविवारा:।

यस्मिँश्चित्त सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मन: शिवसङ्कल्पमस्तु ।।२४।।

ओ३म्। सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान्नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिन इव।

हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मन: शिवसङ्कल्पमस्तु।। २५।। यजुर्वेद ३४.१-६

ओ३म्। स न: पवस्व शं गवे शं जनाय शमर्वते।

शं राजन्नोषधीभ्य: ।।२६।।

ओ३म्। अभयं न: करत्यन्तरिक्षमभयं द्यावापृथिवी उभे इमे।

अभयं पश्चादभयं पुरस्तादुत्तरादधरादभयं नो अस्तु ।।२७।।

ओ३म्। अभयं मित्रादभयममित्रादभयं ज्ञातादभयं परोक्षात्।

अभयं नक्तमभयं दिवा न: सर्वा आशा मम मित्रं भवन्तु ।।२८।।

अथर्ववेद १९.१५.५-६

भावार्थ- हे शान्ति के परम भण्डार प्रभो! आप अपनी असीम कृपा से समस्त दु:ख, क्लेश और व्याधियों को दूर करके हमें परम शान्ति के स्रोत का अमृत रस पिलाओ। आपकी दया से पृथिवी पर शान्ति का सागर लहराता रहे। अन्तरिक्ष से शान्ति का अमृत बरसता रहे। द्युलोक से शान्ति के झरने झरते रहें। सूर्य, चन्द्रमा आदि नक्षत्र मण्डल शान्तिदायक हों। विद्युत्, अग्नि, वायु, जल संवत्सर सदा शान्तिदायक रहें। दिन-रात्रियाँ, प्रभात की वेला शान्ति के गीत सुनायें। पृथिवी, अन्तरिक्ष और द्युलोक की चेतन-अचेतन, प्रत्यक्ष-परोक्ष समस्त दिव्य शक्तियाँ शान्ति प्रदान करें।

हे प्रभो! कल्याण मार्ग के पथिक बुद्धिमान्, विद्वान् जन हमें शान्ति का मार्ग दिखायें। शिल्पकला के आविष्कारक शान्तिदायक कलाओं का आविष्कार करें। कृषक अन्न आदि से शान्ति प्रदान करें। राजा और न्यायाधीश शान्तिदायक रहें। स्त्रियाँ गुणवती और शान्तिदायिका हों। हे सर्वाधार प्रभो! गौ, अश्व आदि पशु, ओषधियाँ, वनस्पतियाँ, वन, पर्वत, नदियाँ, मेघ, समुद्र आदि शान्तिदायक हों। घर, धन, अन्न, यान, नौका आदि शान्तिदायक हों। हमारे यज्ञ आदि श्रेष्ठ कर्म, इन्द्रियाँ, वाणी शान्ति प्रदान करें।

हे आनन्द स्वरूप प्रभो! मेरा मन अत्यन्त वेगवान् शक्तिशाली और अद्भुत है। यही मेरे कर्मों का, मेरे ज्ञान का, जीवन की शान्ति और मुक्ति का आधार है, परन्तु जब यह मन ईष्र्या, द्वेष, स्वार्थ, लोभ, मोह, काम, क्रोध, अभिमान आदि नकारात्मक विचारों का शिकार हो जाता है, तब यही मेरी अशान्ति का एकमात्र कारण बन जाता है। आप कृपा करके मेरे मन को सत्य, प्रेम, अहिंसा, उदारता आदि सकारात्मक शुभ संकल्पों से ओत-प्रोत करके शान्त कर दीजिये।

हे अभय स्वरूप प्रभो! आप हमारे सब भय दूर कर दीजिये। हम शत्रु-मित्र तथा प्रत्यक्ष-परोक्ष स्थानों और सब दिशाओं में निर्भय होकर शान्ति का अनुभव करते हुए सौ वर्ष से भी अधिक सुदृढ-स्वस्थ इन्द्रियों के साथ स्वाधीन होकर जीवित रहें और आपका गुण-गान करते रहें। यही हमारी कामना है, यही प्रार्थना है, यही याचना है। हे कृपानिधान! स्वीकार करो-स्वीकार करो-स्वीकार करो।

।। इति शान्तिकरणम् ।।