Jaatkarm Sanskar (जातकर्म संस्कार)

॥ अथ जातकर्मसंस्कारविधिः ॥

इस का समय और प्रमाण और कर्मविधि इस प्रकार करें

सोष्यन्तीमद्भिरभ्युक्षति ॥

इत्यादि पारस्कर गृह्यसूत्र का प्रमाण है ।

इसी प्रकार आश्वलायन, गोभिलीय और शौनकगृह्यसूत्रों में भी लिखा है ।

जब प्रसव होने का समय आवे, तब निम्नलिखित मन्त्र से गर्भिणी स्त्री के शरीर पर जल से मार्जन करे-

ओम् एज॑तु॒ दश॑मास्यो॒ गर्भो ज॒रायु॑णा स॒ह ।
यथा॒य॑ वा॒युरेज॑ति॒ यथा॑ समु॒द्र एज॑ति ।
ए॒वाय॑ दश॑मास्यो॒ अरा॑ज्ज॒रायु॑णा स॒ह ॥१॥
यजुः० अ० ८। मं० २८ ।।

इस से मार्जन करने के पश्चात् –

ओम् अवैतु पृश्निशेवल शुने जराय्वत्तवे ।
नैव मांसेन पीवरीं न कस्मिंश्चनायतनमव जरायु पद्यताम् ॥

इस मन्त्र का जप करके पुनः मार्जन करे ।

कुमारं जातं पुराऽन्यैरालम्भात् सर्पिर्मधुनी हिरण्यनिकाषं हिरण्ययेन प्राशयेत् ॥

जब पुत्र का जन्म होवे, तब प्रथम दायी आदि स्त्री लोग बालक के शरीर का जरायु पृथक् कर मुख, नासिका, कान, आंख आदि में से मल को शीघ्र दूर कर कोमल वस्त्र से पोंछ, शुद्ध कर, पिता के गोद में बालक को देवें । पिता जहां वायु और शीत का प्रवेश न हो, वहां बैठके एक बीता भर नाड़ी को छोड़, ऊपर सूत से बांधके, उस बन्धन के ऊपर से नाड़ीछेदन करके किञ्चित् उष्ण जल से बालक को स्नान करा, शुद्ध वस्त्र से पोंछ, नवीन शुद्ध वस्त्र पहिना जो प्रसूता – घर के बाहर पूर्वोक्त प्रकार कुण्ड कर रखा हो अथवा तांबे के कुण्ड में समिधा पूर्वलिखित प्रमाणे चयन कर पूर्वोक्त सामान्यविध्युक्त पृष्ठ १७- १९ में कहे प्रमाणे अग्न्याधान समिदाधान करके, अग्नि को प्रदीप्त करके, सुगन्धित घृतादि वेदी के पास रखके, हाथ-पग धोके, एक पीठासन अर्थात् शुभासन पुरोहित के लिये कुण्ड के दक्षिण भाग में रखे, वह उस पर उत्तराभिमुख बैठे और यजमान अर्थात् बालक का पिता हाथ पग धोके वेदी के पश्चिम भाग में आसन बिछा, उस पर उपवस्त्र ओढ़के पूर्वाभिमुख बैठे तथा सब सामग्री अपने और पुरोहित के पास रखके पुरोहित पद के स्वीकार के लिये बोले-

ओम् आ वसोः सदने सीद ॥
तत्पश्चात् पुरोहित- ओं सीदामि ॥

बोलके आसन पर बैठके, पृष्ठ १९ में लिखे प्रमाणे अयं त इध्म० आदि चार मन्त्रों से वेदी में चन्दन की समिदाधान करे और प्रदीप्त समिधा पर पूर्वोक्त सिद्ध किये घी की पृष्ठ २० – २१ में लिखे प्रमाणे आघारावाज्यभागाहुति ४ चार और व्याहृति आहुति ४ चार दोनों मिलके ८ आठ आज्याहुति देनी । तत्पश्चात्-

ओं या तिरश्ची निपद्यते अहं विधरणी इति ।
तां त्वा घृतस्य धारया यजे सराधनीमहम् ।
सराधिन्यै देव्यै देष्ट्यै स्वाहा ॥ इदं संराधिन्यै इदन्न मम ॥१॥

ओं विपश्चित् पुच्छमभरत् तद्धाता पुनराहरत् ।
परेहि त्वं विपश्चित् पुमानयं जनिष्यतेऽसौ नाम स्वाहा ॥ इदं धात्रे इदन्न मम ॥२॥

इन दोनों मन्त्रों से २ दो आज्याहुति करके, पृष्ठ २३-२४ में लिखे प्रमाणे वामदेव्य गान करके, ४-११ पृष्ठ में लिखे प्रमाणे ईश्वरोपासना करें ।

तत्पश्चात् घी और मधु दोनों बरोबर मिलाके, जो प्रथम सोने की शलाका कर रखी हो, उस से बालक की जीभ पर “ओ३म्” यह अक्षर लिखके उस के दक्षिण कान में “वेदोऽसीति’ – ‘तेरा गुप्त नाम वेद है’ ऐसा सुनाके पूर्व मिलाये हुए घी और मधु को उस सोने की शलाका से बालक को नीचे लिखे मन्त्र से थोड़ा-थोड़ा चटावे-

ओं प्र ते ददामि मधुनो घृतस्य वेदं सवित्रा प्रसूतं मघोनाम् ।
आयुष्मान् गुप्तो देवताभिः शतं जीव शरदो लोके अस्मिन् ॥१॥

ओं भूस्त्वयि दधामि ॥२॥

ओं भुवस्त्वयि दधामि ॥३॥

ओं स्वस्त्वयि दधामि ॥४॥

ओं भूर्भुवः स्वस्सर्वं त्वयि दधामि ॥५॥

ओं सद॑स॒स्पति॒मनु॑तं प्रि॒यमिन्द्र॑स्य॒ काम्य॑म् ।
स॒नि॑ मे॒धाम॑यासिषं॒ स्वाहा॑ ॥६॥

इन प्रत्येक मन्त्रों से छह वार घृत-मधु प्राशन कराके तत्पश्चात् चावल और जव को शुद्ध कर पानी से पीस, वस्त्र से छान, एक पात्र में रखके हाथ के अंगूठा और अनामिका से थोड़ा सा लेके-

ओम् इदमाज्यमिदमन्नमिदमायुरिदममृतम् ॥

इस मन्त्र को बोलके बालक के मुख में एक विन्दु छोड़ देवे। यह एक गोभिलीय गृह्यसूत्र का मत है, सब का नहीं । पश्चात् बालक का पिता बालक के दक्षिण कान में मुख लगाके निम्नलिखित मन्त्र बोले-

ओं मेधां ते देवः सविता मेधां देवी सरस्वती ।
मेधां ते अश्विनौ देवावाधत्तां पुष्करस्रजौ ॥१॥

ओम् अग्निरायुष्मान्त्स वनस्पतिभिरायुष्मास्तेन त्वाऽऽयुषाऽऽयुष्मन्तं करोमि ॥२॥

ओं सोम आयुष्मान्त्स ओषधीभिरायुष्मास्तेन०॥३॥

ओं ब्रह्माऽऽयुष्मत् तद् ब्राह्मणैरायुष्मत् तेन० ॥४॥

ओं देवा आयुष्मन्तस्तेऽमृतेनायुष्मन्तस्तेन० ॥५॥

ओम् ऋषय आयुष्मन्तस्ते व्रतैरायुष्मन्तस्तेन० ॥६॥

ओं पितर आयुष्मन्तस्ते स्वधाभिरायुष्मन्तस्तेन० ॥७॥

ओं यज्ञ आयुष्मान्त्स दक्षिणाभिरायुष्मास्तेन० ॥८॥

ओं समुद्र आयुष्मान्त्स स्रवन्तीभिरायुष्मास्तेन त्वाऽऽयुषाऽऽयुष्मन्तं करोमि ॥९॥

इन नव मन्त्रों का जप करे। इसी प्रकार बांयें कान पर मुख धर ये ही नव मन्त्र पुनः जपे । इस के पीछे बालक के कन्धों पर कोमल स्पर्श से हाथ धर अर्थात् बालक के स्कन्धों पर हाथ का बोझ न पड़े, धरके निम्नलिखित मन्त्र बोले-

ओम् इन्द्र॒ श्रेष्ठनि॒ द्रवि॑णानि धेहि चित्तिं दक्षस्य सुभग॒त्वम॒स्मे ।
पोष॑ रयी॒णामरि॑ष्टं त॒नूना॑ स्वा॒द्मानं॑ वा॒चः सु॑दिन॒त्वम॑ह्वा॑म् ॥१॥

अ॒स्मे प्र य॑न्धि मघवन्नृजीषि॒न्निन्द्र॑ रा॒यो वि॒श्ववा॑रस्य॒ भूरैः ।
अ॒स्मे श॒तं श॒रदा॑ जी॒वमे॑ धा अ॒स्मे वी॒राञ्छश्व॑त॒ इन्द्र शिप्रिन् ॥२॥

ओम् अश्मा भव परशुर्भव हिरण्यमस्तृतं भव ।
वेदो वै पुत्र नामासि स जीव शरदः शतम् ॥३॥

इन तीन मन्त्रों को बोले । तत्पश्चात्-

ओं त्र्या॒यु॒षं ज॒मद॑ग्नेः क॒श्यप॑स्य॒ त्र्यायु॒षम् ।
यद्दे॒वेषु॑ त्र्यायु॒षं तन्नो॑ऽ अ॑स्तु॒ त्र्यायु॒षम् ॥

इस मन्त्र का तीन वार जप करे । तत्पश्चात् बालक के स्कन्धों पर से हाथ उठा ले और जिस जगह पर बालक का जन्म हुआ हो वहां जाके-

ओं वेद ते भूमि हृदयं दिवि चन्द्रमसि श्रितम् ।
वेदाहं तन्मां तद्विद्यात् पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतः शृणुयाम शरदः शतम् ॥१॥

इस मन्त्र का जप करे । तथा-

यत्ते सुसीमे हृदय हितमन्तः प्रजापतौ ।
वेदाहं मन्ये तद् ब्रह्म माहं पौत्रमघं निगाम् ॥२॥

यत् पृथिव्या अनामृतं दिवि चन्द्रमसि श्रितम् ।
वेदामृतस्येह नाम माहं पौत्रमघः रिषम् ॥३॥

इन्द्राग्नी शर्म यच्छतं प्रजायै मे प्रजापती ।
यथायं न प्रमीयते पुत्रो जनित्र्या अधि ॥४॥

यददश्चन्द्रमसि कृष्णं पृथिव्या हृदयः श्रितम् ।
तदहं विद्वांस्तत् पश्यन् माहं पौत्रमघः रुदम् ॥५॥

इन मन्त्रों को पढ़ता हुआ सुगन्धित जल से प्रसूता के शरीर का मार्जन करे ।

कोऽसि कतमोऽस्येषोऽस्यमृतोऽसि ।
आहस्पत्यं मासं प्रविशासौ ॥६॥

स त्वाह्ने परिददात्वहस्त्वा रात्र्यै परिददातु रात्रिस्त्वाहोरात्राभ्यां परिददात्वहोरात्रौ त्वार्द्धमासेभ्यः परिदत्तामर्द्धमासास्त्वा मासेभ्यः परिददतु मासास्त्वर्तुभ्यः परिददत्वृतवस्त्वा संवत्सराय परिददतु संवत्सरस्त्वायुषे जरा परिददात्वसौ ॥७॥

इन मन्त्रों को पढ़के बालक को आशीर्वाद देवे । पुनः-

अङ्गाद् अङ्गात् सरस्रवसि हृदयादधिजायसे ।
प्राणं ते प्राणेन सन्दधामि जीव मे यावदायुषम् ॥८॥

अङ्गादङ्गात् सम्भवसि हृदयादधिजायसे ।
वेदो वै पुत्र नामासि स जीव शरदः शतम् ॥९॥

अश्मा भव परशुर्भव हिरण्यमस्तृतं भव ।
आत्माऽसि पुत्र मा मृथाः स जीव शरदः शतम् ॥१०॥

पशूनां त्वा हिङ्कारेणाभिजघ्राम्यसौ ॥११॥

इन मन्त्रों को पढ़के पुत्र के शिर का आघ्राण करे अर्थात् सूंघे। इसी प्रकार जब-जब परदेश से आवे वा जावे, तब-तब भी इस क्रिया को करे, जिस से पुत्र और पिता-माता में अति प्रेम बढ़े ।

ओम् इडासि मैत्रावरुणी वीरे वीरमजीजनथाः ।
सा त्वं वीरवती भव याऽस्मान् वीरवतोऽकरत् ॥

इस मन्त्र से ईश्वर की प्रार्थना करके, प्रसूता स्त्री को प्रसन्न करके, पश्चात् स्त्री के दोनों स्तन किञ्चित् उष्ण सुगन्धित जल से प्रक्षालन कर पोंछके-

ओम् इ॒मः स्तन॒मूर्जंस्वन्तं धया॒पां प्रपो॑नमग्ने सरि॒रस्य॒ मध्ये॑ ।
उत्स॑ जुषस्व॒ मधु॑मन्त॒मव॑न्त्समु॒द्रय॒ सद॑न॒मा वि॑शस्व ॥

इस मन्त्र को पढ़के दक्षिण स्तन प्रथम बालक के मुख में देवे। इसके पश्चात्-

ओं यस्ते स्तनः शशयो यो मयोभूर्यो रत्नधा वसुविद्यः सुदत्रः ।
येन विश्वा पुष्यसि वार्याणि सरस्वति तमिह धातवे कः ॥

इस मन्त्र को पढ़के वाम स्तन बालक के मुख में देवे। तत्पश्चात्-

ओम् आपो देवेषु जाग्रथ यथा देवेषु जाग्रथ ।
एवमस्यार्थं सूतिकायार्थं सपुत्रिकायां जाग्रथ ॥

इस मन्त्र से प्रसूता स्त्री के शिर की ओर एक कलश जल से पूर्ण भरके दश रात्रि तक वहीं धर रक्खे तथा प्रसूता स्त्री प्रसूत स्थान में दश दिन तक रहे। वहां नित्य सायं और प्रातःकाल सन्धिवेला में निम्नलिखित दो मन्त्रों से भात और सरसों मिलाके दश दिन तक बराबर आहुतियाँ देवे-

ओं शण्डामर्का उपवीरः शौण्डिकेय उलूखलः ।
मलिम्लुचो द्रोणासश्च्यवनो नश्यतादितः स्वाहा ॥

इदं शण्डामर्काभ्यामुपवीराय शौण्डिकेयायोलूखलाय मलिम्लुचाय द्रोणेभ्यश्च्यवनाय इदन्न मम ॥ १ ॥

ओम् आलिखन्ननिमिषः किंवदन्त उपश्रुतिर्हर्यक्षः कुम्भीशत्रुः पात्रपाणिर्नृमणिर्हन्त्रीमुखः सर्षपारुणश्च्यवनो नश्यतादितः स्वाहा॥

इदमालिखतेऽनिमिषाय किंवदद्भ्य उपश्रुतये हर्यक्षाय कुम्भीशत्रवे पात्रपाणये नृमणये हन्त्रीमुखाय सर्षपारुणाय च्यवनाय इदन्न मम ॥ २ ॥

इन मन्त्रों से १० दिन तक होम करके पश्चात् अच्छे-अच्छे विद्वान् धार्मिक वैदिक मतवाले बाहर खड़े रहकर और बालक का पिता भीतर रहकर आशीर्वादरूपी नीचे लिखे मन्त्रों का पाठ आनन्दित होके करें-

मा नो॑ हासिषु॒र्ऋष॑यो॒ दैव्या॒ ये त॑नु॒पा ये न॑स्त॒न्वस्तनु॒जाः ।
अम॑यो॒ यो॑ अ॒भि नः॑ सचध्व॒मायु॑र्धत्त प्रत॒रं जा॒वमे॑ नः ॥१॥
अथर्व० का० ६ । अनु० ४ । सू० ४१ ।।

इ॒मं जी॒वेभ्यः॑ परि॒धं द॑धामि॒ मैषा॒ नु गा॒दप॑रो॒ अथ॑मे॒तम् ।
श॒तं जीव॑न्तः श॒रवः॑ पु॒रू॒चीस्तिरो मृ॒त्युं द॑धतां॒ पर्व॑तेन ॥२॥
अथर्व० का० १२ । अनु० २। मं० २३ ।।

वि॒वस्वा॑न्तो॒ अभ॑यं कृ॒णोतु॒ यः सु॒त्रामा॑ जा॒रदा॑नु॒ः सु॒दानु॑ ।
इ॒हेमे वी॒रा ब॒हवो॑ भवन्तु॒ गोम॒दश्व॑व॒न्मय्य॑स्तु॒ पुष्टम् ॥३॥
अथर्व० का० १८। अनु० ३। मं० ६१ ।

॥ इति जातकर्मसंस्कारविधिः समाप्तः ॥