॥ अथ कर्णवेधसंस्कारविधिं वक्ष्यामः ॥
अत्र प्रमाणम् – कर्णवेधो वर्षे तृतीये पञ्चमे वा ॥
यह आश्वलायन गृह्यसूत्र का वचन है।
बालक के कर्ण वा नासिका के वेध का समय जन्म से तीसरे वा पांचवें वर्ष का उचित है ।
जो दिन कर्ण वा नासिका के वेध का ठहराया हो, उसी दिन बालक को प्रात:काल शुद्ध जल से स्नान और वस्त्रालङ्कार धारण कराके बालक की माता यज्ञशाला में लावे । पृष्ठ ४-२४ तक लिखा हुआ सब विधि करे और उस बालक के आगे कुछ खाने का पदार्थ वा खिलौना धरके-
ओं भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भ॒द्रं प॑श्येमा॒क्षभि॑िर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवास॑स्त॒नूभि॒र्य॒शेमहि दे॒वहि॑तं॒ यदायुः॑ः ॥
इस मन्त्र को पढ़के चरक सुश्रुत वैद्यक-ग्रन्थों के जाननेवाले सद्वैद्य के हाथ से कर्ण वा नासिका वेध करावें कि जो नाड़ी आदि को बचाके वेध कर सके । पूर्वोक्त मन्त्र से दक्षिण कान । और-
ओं व॒क्ष्यन्तो॒ वेदा ग॑नीगन्ति कर्णं प्रियः सखायं परिषस्वजा॒ना ।
योषैव शिङ्क्ते॒ वित॒ताधि धन्व॒ञ्ज्या इ॒यः सम॑ने॒ पा॒रय॑न्ती ॥
इस मन्त्र को पढ़के दूसरे वाम कर्ण का वेध करे ।
तत्पश्चात् वही वैद्य उन छिद्रों में शलाका रक्खे कि जिस से छिद्र पूर न जावें । और ऐसी ओषधि उस पर लगावे, जिस से कान पकें नहीं और शीघ्र अच्छे हो जावें ।