॥ अथ समावर्त्तनसंस्कारविधिं वक्ष्यामः ॥
‘समावर्त्तनसंस्कार’ उस को कहते हैं कि जिस में ब्रह्मचर्यव्रत, साङ्गोपाङ्ग वेदविद्या, उत्तमशिक्षा और पदार्थविज्ञान को पूर्ण रीति से प्राप्त होके विवाह विधानपूर्वक गृहाश्रम को ग्रहण करने के लिए विद्यालय को छोड़के घर की ओर आना । इस में प्रमाण-
वेदसमाप्तिं वाचयीत ॥
कल्याणैः सह सम्प्रयोगः ॥
स्नातकायोपस्थिताय । राज्ञे च । आचार्यश्वशुरपितृव्यमातुलानां च । दधनि मध्वानीय। सर्पिर्वा मध्वलाभे । विष्टरः पाद्यमर्घ्यमाचमनीयं मधुपर्क: ॥
–यह आश्वलायनगृह्यसूत्र का वचन है ।
तथा पारस्करगृह्यसूत्र –
वेद समाप्य स्नायाद् । ब्रह्मचर्यं वाष्टाचत्वारिशकम् । त्रय एव स्नातका भवन्ति-विद्यास्नातको व्रतस्नातको विद्याव्रतस्नातकश्चेति ॥
अर्थ- जब वेदों की समाप्ति हो, तब समावर्त्तनसंस्कार करे। सदा पुण्यात्मा पुरुषों के सब व्यवहारों में साझा रखे। राजा, आचार्य, श्वसुर, चाचा और मामा आदि का अपूर्वागमन जब हो और स्नातक अर्थात् जब विद्या और ब्रह्मचर्य पूरण करके ब्रह्मचारी घर को आवे, तब प्रथम पाद्यम्=पग धोने का जल, अर्घ्यम् = मुखप्रक्षालन के लिये जल, और आचमन के लिये जल देके शुभासन पर बैठा, दही में मधु अथवा सहत न मिले तो घी मिलाके, एक अच्छे पात्र में धर इन को मधुपर्क देना होता है और विद्यास्नातक, व्रतस्नातक तथा विद्याव्रतस्नातक ये तीन * प्रकार के स्नातक होते हैं । इस कारण वेद की समाप्ति और ४८ अड़तालीस वर्ष का ब्रह्मचर्य समाप्त करके ब्रह्मचारी विद्याव्रत स्नान करे ।
तानि॒ कल्प॑द् ब्रह्मचा॒री स॑लि॒लस्य॑ पृ॒ष्ठे तपो॑ऽतिष्ठत् त॒प्यमा॑नः समु॒द्रे । स स्ना॒तो ब॒भ्रुः पि॑ङ्ग॒लः पृ॑थि॒व्या॑ ब॒हु रोचते ॥
अथर्व० का० ११ । प्रपा० २४ व० १६ । मं० २६ ॥
अर्थ- जो ब्रह्मचारी समुद्र के समान गम्भीर, बड़े उत्तम व्रत-ब्रह्मचर्य में निवास कर महातप को करता हुआ वेदपठन, वीर्यनिग्रह, आचार्य के प्रियाचरणादि कर्मों को पूरा कर पश्चात् पृ० ९२ में लिखे अनुसार स्नानविधि करके पूर्ण विद्याओं को धरता, सुन्दर वर्णयुक्त होके पृथिवी में अनेक शुभ गुण, कर्म और स्वभाव से प्रकाशमान होता है, वही धन्यवाद के योग्य है। इस का समय-पृष्ठ ७९-८२ तक में लिखे प्रमाणे जानना, परन्तु जब विद्या, हस्तक्रिया, ब्रह्मचर्यव्रत भी पूरा होवे, तभी गृहाश्रम की इच्छा स्त्री और पुरुष करें । विवाह के स्थान दो हैं-एक आचार्य का घर, दूसरा अपना घर । दोनों ठिकानों में से किसी एक ठिकाने आगे विवाह में लिखे प्रमाणे सब विधि करे। इस संस्कार का विधि पूरा करके पश्चात् विवाह करे ।
विधि– जो शुभ दिन समावर्त्तन का नियत करे, उस दिन आचार्य के घर में पृष्ठ १२-१३ में लिखे प्रमाणे यज्ञकुण्ड आदि बनाके सब शाकल्य और सामग्री संस्कारदिन से पूर्व दिन में जोड़ रखे । और स्थालीपाक बनाके तथा घृतादि और पात्रादि यज्ञशाला में वेदी के समीप रक्खे । पुनः पृष्ठ १८ में लिखे प्रमाणे यथावत् ४ चारों दिशाओं में आसन बिछा बैठ, पृष्ठ ४ से पृष्ठ ११ तक में ईश्वरोपासना, स्वस्तिवाचन, शान्तिकरण करे । और जितने वहां पुरुष आये हों, वे भी एकाग्रचित्त होके ईश्वर के ध्यान में मग्न होवें। तत्पश्चात् पृष्ठ १८-१९ में लिखे अग्न्याधान, समिदाधान करके पृष्ठ २० में लिखे प्रमाणे वेदी के चारों ओर उदक-सेचन करके आसन पर पूर्वाभिमुख आचार्य बैठके पृष्ठ २० – २१ में लिखे प्रमाणे आघारावाज्यभागाहुति ४ चार और पृष्ठ २१ में लिखे प्रमाणे व्याहृति आहुति ४ चार और पृष्ठ २२-२३ में लिखे प्रमाणे अष्टाज्याहुति ८ आठ और पृष्ठ २१ में लिखे प्रमाणे स्विष्टकृत् आहुति १ एक और प्राजापत्याहुति १ एक- ये सब मिलके १८ अठारह आज्याहुति देनी । तत्पश्चात् ब्रह्मचारी पृ० ७१ में लिखे ( ओम् अग्ने सुश्रव: ० ) इस मन्त्र से कुण्ड का अग्नि कुण्ड के मध्य में इकट्ठा करे । तत्पश्चात् पृ० ७१ में लिखे प्रमाणे (ओम् अग्नये समिध० ) इस मन्त्र से कुण्ड में ३ तीन समिधा होमकर, पृ० ७१ में लिखे प्रमाणे ( ओं तनूपा० ) इत्यादि ७ सात मन्त्रों से दक्षिण हस्ताञ्जलि आगी पर थोड़ी सी तपा, उस जल से मुखस्पर्श, और तत्पश्चात् पृ० ७१-७२ में लिखे प्रमाणे (ओं वाक् च म० ) इत्यादि मन्त्रों से उक्त प्रमाणे अङ्गस्पर्श करे । पुनः सुगन्धादि औषधयुक्त जल से भरे हुए ८ आठ घड़े वेदी के उत्तरभाग में जो पूर्व से रक्खे हुए हों, उन घड़ों में से-*
ओं ये अप्स्वन्तरग्नयः प्रविष्टा गोह्य उपगोह्यो मयूषो मनोहारखलो विरुजस्तनूदुषुरिन्द्रियहा तान् विजहामि यो रोचनस्तमिह गृह्णामि ॥
इस मन्त्र को पढ़, एक घड़े को ग्रहण करके, उस घड़े में से जल लेके-
ओं तेन मामभिसिञ्चामि श्रियै यशसे ब्रह्मणे ब्रह्मवर्चसाय ॥
इस मन्त्र को बोलके स्नान करना । तत्पश्चात् उपरिकथित (ओं अप्स्वन्तर ० ) इस मन्त्र को बोलके दूसरे घड़े को ले, उस में से लोटे में जल लेके-
ओं येन श्रियमकृणुतां येनावमृशता सुराम् । येनाक्ष्यावभ्यसिञ्चतां यद्वां तदश्विना यशः ॥
इस मन्त्र को बोलके स्नान करना ।
तत्पश्चात् पूर्ववत् ऊपर के ( ओं ये अप्स्वन्तर ० ) इसी मन्त्र का पाठ बोलके वेदी के उत्तर में रखे घड़ों में से ३ तीन घड़ों को लेके पृष्ठ ६६ में लिखे हुए (ओम् आपो हि ष्ठा० ) इन ३ तीन मन्त्रों को बोलके, उन घड़ों के जल से स्नान करना । तत्पश्चात् ८ आठ घड़ों में से रहे हुए ३ तीन घड़ों को लेके ( ओम् आपो हि ष्ठा० ) इन्हीं ३ तीन मन्त्रों को बोलके स्नान करे। पुनः-
ओम् उदु॑त्त॒मं व॑रुण॒ पाश॑म॒स्मदवा॑ध॒मं वि म॑ध्य॒मश्र॑थाय । अथा॑ व॒यमा॑दित्य व्र॒ते तवाना॑गसो॒ऽ अदि॑तये स्याम् ॥
इस मन्त्र को बोलके ब्रह्मचारी अपनी मेखला और दण्ड को छोड़े। तत्पश्चात् वह स्नातक ब्रह्मचारी सूर्य के सम्मुख खड़ा रहकर –
ओम् उद्यन् भ्राजभृष्णुरिन्द्रो मरुद्भिरस्थात् प्रातर्यावभिरस्थाद् दशसनिरसि दशसनिं मा कुर्वाविदन् मा गमय । उद्यन् भ्राजभृष्णुरिन्द्रो मरुद्भिरस्थाद् दिवा यावभिरस्थाच्छतसनिरसि शतसनिं मा कुर्वाविदन् मा गमय । उद्यन् भ्राजभृष्णुरिन्द्रो मरुद्भिरस्थात् सायं यावभिरस्थात् सहस्रसनिरसि सहस्त्रसनिं मा कुर्वाविदन् मा गमय ॥
इस मन्त्र से परमात्मा का उपस्थान स्तुति करके, तत्पश्चात् दही वातिल प्राशन करके, जटा लोम और नख वपन अर्थात् छेदन कराके-
ओम् अन्नाद्याय व्यूहध्वः सोमो राजायमागमत् । स मे मुखं प्रमार्क्ष्यते यशसा च भगेन च ॥
इस मन्त्र को बोलके ब्रह्मचारी उदुम्बर की लकड़ी से दन्तधावन करे । तत्पश्चात् सुगन्धि द्रव्य शरीर पर मलके शुद्ध जल से स्नान कर, शरीर को पोंछ, अधोवस्त्र अर्थात् धोती वा पीताम्बर धारण करके, सुगन्ध युक्त चन्दनादि का अनुलेपन करे । तत्पश्चात् चक्षु, मुख और नासिका के छिद्रों का –
ओं प्राणापानौ मे तर्पय चक्षुर्मे तर्पय श्रोत्रं मे तर्पय ॥
इस मन्त्र से स्पर्श करके हाथ में जल ले, अपसव्य और दक्षिणमुख होके-
ओं पितरः शुन्धध्वम् ॥
इस मन्त्र से जल भूमि पर छोड़के, सव्य होके-
ओं सुचक्षा अहमक्षीभ्यां भूयासः सुवर्चा मुखेन । सुश्रुत् कर्णाभ्यां भूयासम् ॥
इस मन्त्र का जप करके-
ओं परिधास्यै यशोधास्यै दीर्घायुत्वाय जरदष्टिरस्मि । शतं च जीवामि शरदः पुरूची रायस्पोषमभिसंव्ययिष्ये ॥
इस मन्त्र से सुन्दर अति श्रेष्ठ वस्त्र धारण करके-
ओं यशसा मा द्यावापृथिवी यशसेन्द्राबृहस्पती । यशो भगश्च मा विदद् यशो मा प्रतिपद्यताम् ॥
इस मन्त्र से उत्तम उपवस्त्र धारण करके,
ओं या आहरज्जमदग्निः श्रद्धायै कामायेन्द्रियाय । ता अहं प्रतिगृह्णामि यशसा च भगेन च ॥
इस मन्त्र से सुगन्धित पुष्पों की माला लेके-
ओं यद्यशोप्सरसामिन्द्रश्चकार विपुलं पृथु ।तेन सङ्ग्रथिताः सुमनस आबध्नामि यशो मयि ॥
इस मन्त्र से धारण करनी । पुनः शिरोवेष्टन अर्थात् पगड़ी दुपट्टा और टोपी आदि अथवा मुकुट हाथ में लेके पृष्ठ ६७ में लिखे प्रमाणे ( युवा सुवासा : ० ) इस मन्त्र से धारण करे । उस के पश्चात् अलङ्कार लेके-
ओम् अलङ्करणमसि भूयोऽलङ्करणं भूयात् ॥
इस मन्त्र से धारण करे । और-
ओं वृत्रस्यासि कनीनकश्चक्षुर्दा असि चक्षुर्मे देहि ॥
इस मन्त्र से आँख में अञ्जन करना । तत्पश्चात् –
ओं रोचिष्णुरसि ॥
इस मन्त्र से दर्पण में मुख अवलोकन करे । तत्पश्चात्-
ओं बृहस्पतेश्छदिरसि पाप्मनो मामन्तर्धेहि तेजसो यशसो मान्तर्धेहि ॥
इस मन्त्र से छत्र धारण करे । पुनः-
ओं प्रतिष्ठे स्थो विश्वतो मा पातम् ॥
इस मन्त्र से उपानह् = पादवेष्टन-पगरखा और जिस को जोड़ा भी कहते हैं, धारण करे । तत्पश्चात्-
ओं विश्वाभ्यो मा नाष्ट्राभ्यस्परिपाहि सर्वतः ॥
इस मन्त्र से बांस आदि की एक सुन्दर लकड़ी हाथ में धारण करनी ।
तत्पश्चात् ब्रह्मचारी के माता-पिता आदि, जब वह आचार्य कुल से अपना पुत्र घर को आवे, उस को बड़े मान्य प्रतिष्ठा उत्सव उत्साह से अपने घर पर ले आवें । घर पर लाके उसके पिता-माता सम्बन्धी बन्धु आदि ब्रह्मचारी का सत्कार पृ० ९० में लिखे प्रमाणे करें ।
पुनः उस संस्कार में आये हुए आचार्य आदि को उत्तम अन्न-पानादि से सत्कारपूर्वक भोजन कराके और वह ब्रह्मचारी और उस के पिता-मातादि आचार्य को उत्तम आसन पर बैठा, पूर्वोक्त प्रकार मधुपर्क कर, सुन्दर पुष्पमाला, वस्त्र, गोदान, धन आदि की दक्षिणा यथाशक्ति देके, सब के सामने आचार्य के जो कि उत्तम गुण हों, उन की प्रशंसा कर और विद्यादान की कृतज्ञता सब को सुनावें-
‘सुनो भद्रजनो ! इस महाशय आचार्य ने मेरे पर बड़ा उपकार किया है । जिस ने मुझ को पशुता से छुड़ा उत्तम विद्वान् बनाया है, उस का ।
प्रत्युपकार मैं कुछ भी नहीं कर सकता । इस के बदले में अपने आचार्य को अनेक धन्यवाद दे, नमस्कार कर प्रार्थना करता हूं कि जैसे आपने मुझ को उत्तम शिक्षा और विद्यादान देके कृत-कृत्य किया, उसी प्रकार अन्य विद्यार्थियों को भी कृतकृत्य करेंगे । और जैसे आपने मुझ को विद्या देके आनन्दित किया है, वैसे मैं भी अन्य विद्यार्थियों को कृतकृत्य और आनन्दित करता रहूंगा, और आपके किये उपकार को कभी न भूलूंगा ।
सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर आप मुझ और सब पढ़ने-पढ़ानेहारे तथा सब संसार पर अपनी कृपा-दृष्टि से सब को सभ्य, विद्वान्, शरीर और आत्मा के बल से युक्त, और परोपकारादि शुभ कर्मों की सिद्धि करने – कराने में चिरायु स्वस्थ पुरुषार्थी उत्साही करें कि जिस से इस परमात्मा की सृष्टि में उस के गुण, कर्म, स्वभाव के अनुकूल अपने गुण, कर्म, स्वभावों को करके धर्मार्थ काम और मोक्ष की सिद्धि कर-कराके सदा आनन्द में रहें ।। ‘