Sanyas Sanskar – संन्यास संस्कार

॥ अथ संन्याससंस्कारविधिं वक्ष्यामः ॥

‘संन्यास संस्कार’ उस को कहते हैं कि जो मोहादि आवरण, पक्षपात छोड़के विरक्त होकर सब पृथिवी में परोपकारार्थ विचरे । अर्थात्- सम्यङ् न्यस्यन्त्यधर्माचरणानि येन वा सम्यङ् नित्यं सत्यकर्मस्वास्त उपविशति स्थिरीभवति येन स ‘संन्यासः ‘ । संन्यासो विद्यते यस्य स ‘संन्यासी’ ।

काल – प्रथम जो वानप्रस्थ के आदि में कह आये हैं कि ब्रह्मचर्य पूरा करके गृहस्थ और गृहस्थ होके वनस्थ, वनस्थ होके संन्यासी होवे। यह क्रम संन्यास, अर्थात् अनुक्रम से आश्रमों का अनुष्ठान करता-करता वृद्धावस्था में जो संन्यास लेना है, उसी को ‘क्रम संन्यास’ कहते हैं ।

द्वितीय प्रकार- ‘यदहरेव विरजेत् तदहरेव प्रव्रजेद् वनाद् वा गृहाद् वा ।’
-यह ब्राह्मणग्रन्थ का वाक्य है ।

अर्थ – जिस दिन दृढ़ वैराग्य प्राप्त होवे उसी दिन, चाहे वानप्रस्थ का समय पूरा भी न हुआ हो, अथवा वानप्रस्थ आश्रम का अनुष्ठान न करके गृहाश्रम से ही संन्यासाश्रम ग्रहण करे । क्योंकि संन्यास में दृढ़ वैराग्य और यथार्थ ज्ञान का होना ही मुख्य कारण है ।

तृतीय प्रकार – ‘ब्रह्मचर्यादेव प्रव्रजेत्’ ।

यह भी ब्राह्मणग्रन्थ का वचन है । यदि पूर्ण अखण्डित ब्रह्मचर्य, सच्चा वैराग्य और पूर्ण ज्ञान-विज्ञान को प्राप्त होकर विषयासक्ति की इच्छा आत्मा से यथावत् उठ जावे, पक्षपातरहित होकर सब के उपकार करने की इच्छा होवे, और जिस को दृढ़ निश्चय हो जावे कि मैं मरण – पर्यन्त यथावत् संन्यास-धर्म का निर्वाह कर सकूंगा तो वह न गृहाश्रम करे, न वानप्रस्थाश्रम, किन्तु ब्रह्मचर्याश्रम को पूर्ण कर ही के संन्यासाश्रम को ग्रहण कर लेवे ।

अत्र वेदप्रमाणानि-

श॒र्य॒णाव॑ति॒ सोम॒मिन्द्र॑ः पिबतु वृत्र॒हा ।
बलं॒ दधा॑न आ॒त्मनि॑ करि॒ष्यन् वी॒र्य॑ म॒हद् इन्द्रा॑ये॒न्द्रो॒ परि॑ स्स्रव ॥१॥

आ पवस्व दिशां पत आजी॒कात् सम मीढ्वः ।
ऋ॒त॒वा॒केन॑ स॒त्येन॑ श्र॒द्धया॒ तप॑सा सु॒त इन्द्रा॑ये॒न्दो॒ परि॑ स्रव ॥२॥

अर्थ– मैं ईश्वर संन्यास लेनेहारे तुझ मनुष्य को उपदेश करता हूं कि जैसे (वृत्रहा) मेघ का नाश करनेहारा (इन्द्र) सूर्य (शर्यणावति) हिंसनीय पदार्थों से युक्त भूमितल में स्थित (सोमम्) रस को पीता है, वैसे संन्यास लेनेवाला पुरुष उत्तम मूल फलों के रस को (पिबतु) पीवे और (आत्मनि) अपने आत्मा में (महत्) बड़े (वीर्यम्) सामर्थ्य को (करिष्यन्) करूंगा, ऐसी इच्छा करता हुआ (बलं दधानः) दिव्य बल को धारण करता हुआ (इन्द्राय) परमैश्वर्य के लिए, हे (इन्दो) चन्द्रमा के तुल्य सब को आनन्द करनेहारे पूर्ण विद्वान् तू संन्यास लेके सब पर (परि स्रव) सत्योपदेश की वृष्टि कर ॥१॥

हे (सोम) सोम्यगुणसम्पन्न (मीढ्वः) सत्य से सब के अन्त:करण को सींचनेहारे, (दिशां पते) सब दिशाओं में स्थित मनुष्यों को सच्चा ज्ञान देके पालन करनेहारे, (इन्दो) शमादिगुणयुक्त संन्यासिन् ! तू (ऋतवाकेन) यथार्थ बोलने, (सत्येन) सत्यभाषण करने से, ( श्रद्धया) सत्य के धारण में सच्ची प्रीति और (तपसा) प्राणायाम योगाभ्यास से, (आर्जीकात्) सरलता से ( सुतः) निष्पन्न होता हुआ, तू अपने शरीर इन्द्रिय मन बुद्धि को (आ पवस्व ) पवित्र कर । (इन्द्राय) परमैश्वर्ययुक्त परमात्मा के लिए ( परिस्रव) सब ओर से गमन कर ॥२॥

ऋ॒तं वद॑न्नृ॒तद्युम्न स॒त्यं वद॑न्त्स॒त्यकर्मन् ।
श्र॒द्धां वद॑न्त्सोम राजन् धा॒त्रा सो॑म॒ परि॑ष्कृत॒ इन्द्रा॑ये॒न्द्रो॒ परि॑ स्रव ॥३॥

अर्थ-हे (ऋतद्युम्न) सत्यधन और सत्य कीर्तिवाले यतिवर ! (ऋतं वदन्) पक्षपात छोड़के यथार्थ बोलता हुआ, हे (सत्यकर्मन्) सत्य वेदोक्त कर्मवाले संन्यासिन् ! ( सत्यं वदन्) सत्य बोलता हुआ, (श्रद्धाम्) सत्यधारण में प्रीति करने को (वदन्) उपदेश करता हुआ, (सोम) सोम्यगुणसम्पन्न, (राजन्) सब ओर से प्रकाशयुक्त आत्मावाले, (सोम) योगैश्वर्ययुक्त (इन्दो) सब को आनन्ददायक संन्यासिन् ! तू (धात्रा) सकल विश्व के धारण करनेहारे परमात्मा से योगाभ्यास करके (परिष्कृतः ) शुद्ध होता हुआ (इन्द्राय) योग से उत्पन्न हुए परमैश्वर्य की सिद्धि के लिए (परिस्रव) यथार्थ पुरुषार्थ कर ॥ ३॥

यत्र॑ ब्र॒ह्मा प॑वमान छन्द॒स्या॑३’ वाच॒ वद॑न् ।
ग्राव्णा॒ सोमे॑ मही॒यते॒ सोमे॑नान॒न्द॑ ज॒नय॒न् इन्द्रा॑येन्द्रो॒ परि॑ स्स्रव ॥४॥

अर्थ-हे (छन्दस्याम्) स्वतन्त्रतायुक्त (वाचम्) वाणी को (वदन्) कहते हुए (सोमेन) विद्या, योगाभ्यास और परमेश्वर की भक्ति से (आनन्दम्) सब के लिए आनन्द को ( जनयन्) प्रकट करते हुए, (इन्दो) आनन्दप्रद, (पवमान) पवित्रात्मन्, पवित्र करनेहारे संन्यासिन्! (यत्र) जिस (सोमे) परमैश्वर्ययुक्त परमात्मा में (ब्रह्मा) चारों वेदों का जाननेहारा विद्वान् (महीयते) महत्त्व को प्राप्त होकर सत्कार को प्राप्त होता है । जैसे (ग्राव्णा) मेघ से सब जगत् को आनन्द होता है, वैसे तू सब को (इन्द्राय) परमैश्वर्य्ययुक्त मोक्ष का आनन्द देने के लिये सब साधनों को (परिस्रव) सब प्रकार से प्राप्त करा ॥४॥

यत्र॒ ज्योति॒रज॑स्त्रे॒ यस्मि॑ल्लो॒के स्व॑हि॒तम् ।
तस्मिन् मां ह पव॑माना॒मृते॑ लो॒के अक्षि॑त॒ इन्द्रा॑ये॒न्द्रो॒ परि॑ स्रव ॥५॥

अर्थ-हे (पवमान) अविद्यादि क्लेशों के नाश करनेहारे, पवित्रस्वरूप, (इन्दो) सर्वानन्ददायक परमात्मन् ! ( यत्र ) जहां तेरे स्वरूप में (अजस्रम् ) निरन्तर व्यापक तेरा (ज्योति:) तेज है, ( यस्मिन्) जिस (लोके) ज्ञान से देखने योग्य तुझ में (स्व:) नित्य सुख (हितम्) स्थित है, (तस्मिन्) उस ( अमृते) जन्म-मरण और (अक्षिते) नाश से रहित (लोके) द्रष्टव्य अपने स्वरूप में आप (मा) मुझ को (इन्द्राय ) परमैश्वर्यप्राप्ति के लिये (धेहि ) कृपा से धारण कीजिए और मुझ पर माता के समान कृपाभाव से (परिस्रव) आनन्द की वर्षा कीजिए ॥५॥

यत्र॒ राजा॑ वैवस्व॒तो यत्रा॑व॒रोध॑नं दि॒वः ।
यत्रा॑मू॒र्य॒ह्वती॒राप॒स्त माम॒मृत॑ कृ॒धीन्द्रा॑ये॒न्दा॒ परि॑ स्रव ॥ ६ ॥

अर्थ-हे (इन्दो) आनन्दप्रद परमात्मन् ! (यत्र) जिस तुझ में (वैवस्वतः) सूर्य का प्रकाश (राजा) प्रकाशमान हो रहा है, (यत्र) जिस आप में (दिवः) बिजुली अथवा बुरी कामना की (अवरोधनम् ) रुकावट है, (यत्र) जिस आप में (अमूः) वे कारणरूप (यह्वती:) बड़े व्यापक आकाशस्थ (आपः) प्राणप्रद वायु हैं, (तत्र) उस अपने स्वरूप में (माम्) मुझ को (अमृतम्) मोक्षप्राप्त ( कृधि ) कीजिए। (इन्द्राय) परमैश्वर्य के लिए (परिस्रव) आदर भाव से आप मुझ को प्राप्त हूजिये ॥ ६ ॥

यत्रा॑नु॒का॒मं चर॑णं त्रिना॒के त्रि॑दि॒वे दि॒वः ।
लो॒का यत्र॒ ज्योति॑ष्मन्त॒स्तत्र॒ माम॒मृत॑ कृ॒धीन्द्रा॑ये॒न्दा॒ परि॑ स्स्रव ॥७॥

अर्थ-हे (इन्दो परमात्मन्! (यत्र) जिस आप में (अनुकामम्) इच्छा के अनुकूल स्वतन्त्र ( चरणम्) विहरना है, (यत्र) जिस (त्रिनाके) त्रिविध अर्थात् आध्यात्मिक, आधिभौतिक, और आधिदैविक दुःख से रहित, (त्रिदिवे) तीन सूर्य, विद्युत् और भौम्य अग्नि से प्रकाशित

सुखस्वरूप में (दिवः) कामना करनेयोग्य शुद्ध कामनावाले, (लोका:) यथार्थ ज्ञानयुक्त, (ज्योतिष्मन्तः) शुद्ध विज्ञानयुक्त मुक्ति को प्राप्त हुए सिद्ध पुरुष विचरते हैं, (तत्र) उस अपने स्वरूप में (माम्) मुझ को (अमृतम्) मोक्षप्राप्त ( कृधि ) कीजिये । और (इन्द्राय) उस परम आनन्दैश्वर्य के लिये (परिस्रव) कृपा से प्राप्त हूजिये ॥७॥

यत्र॒ कामा॑ निका॒माश्च॒ यत्र॑ ब्र॒ध्नस्य॑ वि॒ष्टप॑म् । स्व॒धा च॒ यत्र॒ तृप्त॑श्च॒ तत्र॒ माम॒मृत॑ कृ॒धीन्द्रा॑ये॒न्दा॒ परि॑ स्स्रव ॥८॥

अर्थ-हे (इन्दो) निष्कामानन्दप्रद, सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्मन्! (यत्र) जिस आप में (कामाः) सब कामना (निकामाः) और अभिलाषा छूट जाती हैं, (च) और (यत्र) जिस आप में (ब्रध्नस्य) सब से बड़े प्रकाशमान सूर्य का (विष्टपम्) विशिष्ट सुख, (च) और (यत्र) जिस आप में, (स्वधा) अपना ही धारण, (च) और जिस आप में (तृप्ति:) पूर्ण तृप्ति है, (तत्र) उस अपने स्वरूप में (माम्) मुझ को (अमृतम्) प्राप्त-मुक्तिवाला (कृधि ) कीजिये तथा (इन्द्राय ) सब दुःख – विदारण के लिए आप मुझ पर (परिस्रव) करुणावृत्ति कीजिए ||८||

यत्रा॑न॒न्दाश्च॒ मदा॑श्च॒ मुद॑ प्र॒मुद॒ आस॑ते ।
काम॑स्य॒ यत्रा॒प्ताः कामा॒स्तत्र॒ माम॒मृत॑ कृ॒धीन्द्रा॑ये॒न्दा॒ परि॑ स्रव ॥९॥
-ऋ० म० ९ । सू० ११३ ।।

अर्थ-हे (इन्दो) सर्वानन्दयुक्त जगदीश्वर ! (यत्र) जिस आप में (आनन्दाः) सम्पूर्ण समृद्धि, (च) और (मोदा:) सम्पूर्ण हर्ष, (मुदः) सम्पूर्ण प्रसन्नता, (च) और (प्रमुदः) प्रकृष्ट प्रसन्नता (आसते) स्थित हैं, (यत्र) जिस आप में (कामस्य) अभिलाषी पुरुष की (कामा: ) सब कामना (आप्ताः) प्राप्त होती हैं, (तत्र) उसी अपने स्वरूप में (इन्द्राय) परमैश्वर्य के लिये (माम्) मुझ को (अमृतम्) जन्म – मृत्यु के दुःख से रहित मोक्षप्राप्तियुक्त कि जिस से मुक्ति के समय के मध्य में संसार में नहीं आना पड़ता, उस मुक्ति की प्राप्तिवाला (कृधि ) कीजिए और इसी प्रकार सब जीवों को (परिस्रव) सब ओर से प्राप्त हूजिए ||९||

यदे॑वा॒ यत॑यो यथा॒ भुव॑ना॒न्यपि॑न्वत ।
अत्र समुद्र आ गूळमा सूर्यमजभर्त्तन ॥ १० ॥
-ऋ० म० १० । सू० ७२ | मं० ७॥

अर्थ – हे (देवाः) पूर्ण विद्वान् (यतयः) संन्यासी लोगो ! तुम (यथा) जैसे (अत्र) इस (समुद्रे) आकाश में (गूढम् ) गुप्त (आ सूर्यम्) स्वयं प्रकाशस्वरूप सूर्यादि का प्रकाशक परमात्मा है, उस को (आ अजभर्त्तन) चारों ओर से अपने आत्माओं में धारण करो और आनन्दित होओ, वैसे (यत्) जो ( भुवनानि ) सब भुवनस्थ गृहस्थादि मनुष्य हैं, उन को सदा (अपिन्वत) विद्या और उपदेश से संयुक्त किया करो, यही तुम्हारा परम धर्म है ॥१०॥

भ॒द्रमि॒च्छन्त॒ ऋष॑यः स्व॒वि॑िद॒स्तपो॑ दी॒क्षामु॑प॒निवे॑दु॒रग्रे । ततो॑ रा॒ष्ट्रं बल॒मोज॑श्च॒ जा॒तं तद॑स्मै॑ दे॒वा उप॒संन॑मन्तु ॥ ११ ॥
अथर्व० का० १९ । सू० ४१ । मं० १ ॥

अर्थ- हे विद्वानो ! जो (ऋषयः) वेदार्थविद्या को प्राप्त, (स्वर्विद: ) सुख को प्राप्त, (अग्रे) प्रथम (तपः) ब्रह्मचर्यरूप आश्रम को पूर्णता से सेवन तथा यथावत् स्थिरता से प्राप्त होके (भद्रम्) कल्याण की (इच्छन्तः) इच्छा करते हुए, (दीक्षाम् ) संन्यास की दीक्षा को (उपनिषेदुः) ब्रह्मचर्य ही से प्राप्त होवें, उन का (देवा) विद्वान् लोग (उपसंनमन्तु) यथावत् सत्कार किया करें । (ततः) तदनन्तर (राष्ट्रम्) राज्य (बलम्) बल (च) और (ओजः) पराक्रम (जातम् ) उत्पन्न होवे, (तत्) उस से (अस्मै ) इस संन्यासाश्रम के पालन के लिये यत्न किया करें ॥ ११ ॥

॥ अथ मनुस्मृतेश्श्लोकाः ॥

वनेषु तु विहृत्यैवं तृतीयं भागमायुषः ।
चतुर्थमायुषो भागं त्यक्त्वा सङ्गान् परिव्रजेत् ॥१॥

अधीत्य विधिवद् वेदान् पुत्रांश्चोत्पाद्य धर्मतः ।
इष्ट्वा च शक्तितो यज्ञैर्मनो मोक्षे नियोजयेत् ॥२॥

प्राजापत्यां निरूप्येष्टिं सर्ववेदसदक्षिणाम् ।
आत्मन्यग्नीन् समारोप्य ब्राह्मणः प्रव्रजेद् गृहात् ॥३॥

यो दत्त्वा सर्वभूतेभ्यः प्रव्रजत्यभयं गृहात् ।
तस्य तेजोमया लोका भवन्ति ब्रह्मवादिनः ॥४॥

आगारादभिनिष्क्रान्तः पवित्रोपचितो मुनिः ।
समुपोढेषु कामेषु निरपेक्षः परिव्रजेत् ॥५॥

अनग्निरनिकेतः स्याद् ग्राममन्नार्थमाश्रयेत् ।
उपेक्षकोऽसङ्कुसको मुनिर्भावसमाहितः ॥६॥

नाभिनन्देत मरणं नाभिनन्देत जीवितम् ।
कालमेव प्रतीक्षेत निर्देशं भृतको यथा ॥७॥

च न दृष्टिपूतं न्यसेत् पादं वस्त्रपूतं जलं पिबेत् ।
सत्यपूतां वदेद् वाचं मनःपूतं समाचरेत् ॥८॥

अध्यात्मरतिरासीनो निरपेक्षो निरामिषः ।
आत्मनैव सहायेन सुखार्थी विचरेदिह ॥९॥

क्लृप्तकेशनखश्मश्रुः पात्री दण्डी कुसुम्भवान् ।
विचरेन्नियतो नित्यं सर्वभूतान्यपीडयन् ॥१०॥

इन्द्रियाणां निरोधेन रागद्वेषक्षयेण च ।
अहिंसया भूतानाममृतत्वाय कल्पते ॥११॥

दूषितोऽपि चरेद् धर्मं यत्र तत्राश्रमे रतः ।
समः सर्वेषु भूतेषु न लिङ्गं धर्मकारणम् ॥१२॥

फलं कतकवृक्षस्य यद्यप्यम्बुप्रसादकम् ।
नामग्रहणादेव तस्य वारि प्रसीदति ॥ १३ ॥

प्राणायामा ब्राह्मणस्य त्रयोऽपि विधिवत् कृताः ।
व्याहृतिप्रणवैर्युक्ता विज्ञेयं परमं तपः ॥१४॥

दह्यन्ते ध्मायमानानां धातूनां हि यथा मलाः ।
तथेन्द्रियाणां दह्यन्ते दोषाः प्राणस्य निग्रहात् ॥१५॥

प्राणायामैर्दहेद् दोषान् धारणाभिश्च किल्विषम् ।
प्रत्याहारेण संसर्गान् ध्यानेनानीश्वरान् गुणान् ॥१६॥

उच्चावचेषु भूतेषु दुर्ज्ञेयामकृतात्मभिः ।
ध्यानयोगेन सम्पश्येद् गतिमस्यान्तरात्मनः ॥१७॥

सम्यग्दर्शनसम्पन्नः कर्मभिर्न निबध्यते ।
दर्शनेन विहीनस्तु संसारं प्रतिपद्यते ॥१८॥

अहिंसयेन्द्रियासङ्गैर्वैदिकैश्चैव कर्मभिः ।
तपसश्चरणैश्चोग्रैः साधयन्तीह तत्पदम् ॥१९॥

यदा भावेन भवति सर्वभावेषु निःस्पृहः ।
तदा सुखमवाप्नोति प्रेत्य चेह च शाश्वतम् ॥२०॥

अनेन विधिना सर्वांस्त्यक्त्वा सङ्गाञ्छनैः शनैः ।
सर्वद्वन्द्वविनिर्मुक्तो ब्रह्मण्येवावतिष्ठते ॥२१॥

इद शरणमज्ञानामिदमेव विजानताम् ।
इदमन्विच्छतां स्वर्ग्यम् इदमानन्त्यमिच्छताम् ॥२२॥

अनेन क्रमयोगेन परिव्रजति यो द्विजः ।
स विधूयेह पाप्मानं परं ब्रह्माधिगच्छति ॥२३॥

विधि– जो पुरुष संन्यास लेना चाहे वह जिस दिन सर्वथा प्रसन्नता हो, उसी दिन नियम और व्रत, अर्थात् तीन दिन तक दुग्धपान करके उपवास और भूमि में शयन और प्राणायाम, ध्यान तथा एकान्तदेश में ओङ्कार का जप किया करे और पृष्ठ १२ – १४ में लिखे प्रमाणे सभामण्डप, वेदी, समिधा, घृतादि शाकल्य सामग्री एक दिन पूर्व कर रखनी । पश्चात् जिस चौथे दिन संन्यास लेना हो, प्रहर रात्रि से उठकर शौच, स्नानादि आवश्यक कर्म करके, प्राणायाम, ध्यान और प्रणव का जप करता रहे । सूर्योदय के समय उत्तम गृहस्थ धार्मिक विद्वानों का पृष्ठ १८ में लिखे प्रमाणे वरण कर, पृष्ठ १९-२० में लिखे प्रमाणे अग्न्याधान, समिदाधान, घृतप्रतपन और स्थालीपाक करके पृ० ७-११ में लिखे प्रमाणे स्वस्तिवाचन शान्तिकरण का पाठ कर, पृ० २० में लिखे प्रमाणे वेदी के चारों ओर जलप्रोक्षण, आघारावाज्यभागाहुति ४ चार और व्याहृति आहुति ४ चार, तथा-

ओं भुवनपतये स्वाहा ॥१॥
ओं भूतानां पतये स्वाहा ॥२॥
ओं प्रजापतये स्वाहा ॥३॥

इन में से एक-एक मन्त्र से एक-एक करके ११ ग्यारह आज्याहुति दे, जो विधिपूर्वक भात बनाया हो उस में घृत सेचन करके, यजमान जो कि संन्यास का लेनेवाला है, और दो ऋत्विज् निम्नलिखित स्वाहान्त मन्त्रों से भात का होम और शेष दो ऋत्विज् भी साथ-साथ घृताहुति करते जावें-

ओं ब्रह्म॒ होता॒ ब्रह्म॑ य॒ज्ञा ब्रह्म॑णा॒ स्वर॑वो मि॒ताः ।
अ॒ध्व॒र्युर्ब्रह्म॑णो जा॒तो ब्रह्म॑णो॒ ऽन्तर्हितं ह॒विः स्वाहा ॥१॥

ब्रह्म॒स्रुचो॑ घृ॒तव॑ती॒र्ब्रह्म॑णा॒ वेदि॒रुर्द्धता ।
ब्रह्म॑ य॒ज्ञश्च॑ स॒त्रं च ऋ॒त्विजो॒ ये ह॑वि॒ष्कृत॑ । श॒मि॒ताय॒ स्वाहा॑ ॥२॥

अ॑हो॒हो॒मुचे॒ प्र भ॑रे मनी॒षा मा सु॒त्राम्णे॑ सुम॒तिमा॑वृणा॒नः ।
इ॒दमि॑न्द्र॒ प्रति॑ ह॒व्यं गृ॑भाय स॒त्याः स॑न्तु॒ यज॑मानस्य॒ कामा॒ स्वाहा॑ ॥३॥

अ॒हो॒मुच॑ वृष॒भं य॒ज्ञिया॑नां वि॒राज॑न्तं प्रथ॒मम॑ध्व॒राणा॑म् ।
अ॒पां नपा॑तम॒श्विना हुवे॒ धि॒येन्द्रे॑ण म इन्द्रि॒यं द॑त्त॒मोज॒ः स्वाहा॑ ॥४॥

यत्र॑ ब्र॒ह्म॒विदो॒ यान्ति॑ दी॒क्षया॒ तप॑सा स॒ह । अ॒ग्निमा॒ त्र॑ नयत्व॒ग्निर्मेधां द॑धातु मे । अ॒ग्नये॒ स्वाहा॑ ॥ इ॒दम॒ग्नये इदन्न मम ॥५॥

यत्र॑ ब्रह्म॒वाति॑दी॒क्षया॒ तप॑सा स॒ह । वा॒युर्मा॒ तत्र॑ नयतु वा॒युः प्रा॒णान् द॑धातु मे । वा॒यवे॒ स्वाहा॑ ॥ इदं वायवे इदन्न मम ॥६॥

यत्र॑ ब्रह्म॒विदो॒ यान्ति॑दी॒क्षया॒ तप॑सा स॒ह । सूर्यो॑ मा॒ तत्र॑ नयतु चक्षुः सूर्यो दधातु मे । सूर्या॑य॒ स्वाहा॑ ॥ इदं सूर्याय इदन्न मम ॥७॥

ब्रह्म॒वाति॑दी॒क्षया॒ तप॑सा स॒ह । च॒न्द्रो मा॒ तत्र॑ नयतु मन॑श्च॒न्द्रो द॑धातु मे । च॒न्द्राय॒ स्वाहा॑ ॥ इदं चन्द्राय इदन्न मम ॥८॥

यत्र॑ ब्रह्म॒विदो॒ यान्ति॑ दी॒क्षया॒ तप॑सा स॒ह । सोमो॑ मा॒ तत्र॑ नयतु पय॒ः सोमो॑ दधातु मे । सोमा॑य॒ स्वाहा॑ ।। इदं सोमाय इदन्न मम ॥९॥

यत्र॑ ब्रह्म॒वि यान्ति॑दी॒क्षया॒ तप॑सा स॒ह । इन्द्रो॑ मा॒ तत्र॑ नयतु बल॒मिन्द्रो॑ दधातु मे । इन्द्रा॑य॒ स्वाहा॑ ॥ इदमिन्द्राय इदन्न मम ॥१०॥

यत्र॑ ब्रह्म॒विदो॒ यान्ति॑ दी॒क्षया॒ तप॑सा स॒ह । आपो॑ मा॒ त्र॑ नयन्त्व॒मृतं॒ मोप॑तिष्ठतु । अ॒द्भ्यः स्वाहा॑ ॥ इदमद्भ्यः इदन्न मम ॥ ११ ॥

यत्र॑ ब्रह्म॒विदो॒ यान्ति॑ दा॒क्षया॒ तप॑सा स॒ह । ब्र॒ह्मा मा॒ त॑त्र नयतु ब्र॒ह्मा ब्रह्म॑ दधातु मे । ब्र॒ह्मणे॒ स्वाहा॑ ॥ इदं ब्रह्मणे इदन्न मम ॥१२॥
– अथर्व० कां० १९ । सू० ४२, ४३ ॥

ओं प्राणापानव्यानोदानसमाना मे शुध्यन्ताम् ।
ज्योतिरहं विरजा विपाप्मा भूयासः स्वाहा ॥१॥

वाङ्मनश्चक्षुःश्रोत्रजिह्वाघ्राणरेतोबुद्ध्याकूतिसङ्कल्पा मे शुध्यन्ताम् ।
ज्योतिरहं विरजा विपाप्मा भूयासः स्वाहा ॥२॥

शिरः पाणिपादपार्श्वपृष्ठोरूदरजङ्घा शिश्नोपस्थपायवो मे शुध्यन्ताम् ।
ज्योतिरहं विरजा विपाप्मा भूयासः स्वाहा ॥३॥

त्वक्चर्ममांसरुधिरमेदोमज्जास्नायवोऽस्थीनि मे शुध्यन्ताम् ।
ज्योतिरहं विरजा विपाप्मा भूयासः स्वाहा ॥४॥

शब्दस्पर्शरूपरसगन्धा मे शुध्यन्ताम् ।
ज्योतिरहं विरजा वि भूयासः स्वाहा ॥५॥

पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशा मे शुध्यन्ताम् ।
ज्योतिरहं विरजा विपाप्मा भूयासः स्वाहा ॥६॥

अन्नमयप्राणमयमनोमयविज्ञानमयानन्दमया मे शुध्यन्ताम् ।
ज्योतिरहं विरजा विपाप्मा भूयासः स्वाहा ॥७॥

विविष्ट्यै स्वाहा ॥८॥

कषोत्काय स्वाहा ॥९॥

उत्तिष्ठ पुरुष हरित लोहित पिङ्गलाक्षि । देहि देहि ददापयिता मे शुध्यताम् । ज्योतिरहं विरजा विपाप्मा भूयासः स्वाहा ॥१०॥

ओं स्वाहा मनोवाक्कायकर्माणि मे शुध्यन्ताम् ।
ज्योतिरहं विरजा विपाप्मा भूयासः स्वाहा ॥११॥

अव्यक्तभावैरहङ्कारैर्ज्योतिरहं विरजा विपाप्मा भूयास स्वाहा ॥१२॥

आत्मा मे शुध्यताम् । ज्योतिरहं विरजा विपाप्मा भूया स्वाहा ॥१३॥

अन्तरात्मा मे शुध्यताम् । ज्योतिरहं विरजा विपाप्मा भूयास स्वाहा ॥१४॥

परमात्मा मे शुध्यताम् । ज्योतिरहं विरजा विपाप्मा भूयास स्वाहा ॥१५॥

इन १५ मन्त्रों में से एक-एक करके भात की आहुति देनी । पश्चात् निम्नलिखित मन्त्रों से ३५ घृताहुति देवें-

ओमग्नये स्वाहा ॥१६॥ ओं विश्वेभ्यो देवेभ्यः स्वाहा ॥१७॥
ओं अ ध्रुवाय भूमाय स्वाहा ॥ १८ ॥ ओं ध्रुवक्षितये स्वाहा ॥ १९ ॥
ओमच्युतक्षितये स्वाहा ॥२०॥ ओमग्नये स्विष्टकृते स्वाहा ॥२१॥
ओं धर्माय स्वाहा ॥२२॥ ओमधर्माय स्वाहा ॥२३॥
ओमद्भ्यः स्वाहा ॥२४॥ ओमोषधिवनस्पतिभ्यः स्वाहा ॥ २५ ॥
ओं रक्षोदेवजनेभ्यः स्वाहा ॥ २६ ॥ ओं गृह्याभ्यः स्वाहा ॥२७॥
ओमवसानेभ्यः स्वाहा ॥ २८ ॥ ओमवसानपतिभ्यः स्वाहा ॥२९॥
ओं सर्वभूतेभ्यः स्वाहा ॥३०॥ ओं कामाय स्वाहा ॥३१॥
ओमन्तरिक्षाय स्वाहा ॥३२॥ ओं पृथिव्यै स्वाहा ॥३३॥
ओं दिवे स्वाहा ॥३४॥ ओं सूर्याय स्वाहा ॥ ३५॥
ओं चन्द्रमसे स्वाहा ॥३६॥ अ नक्षत्रेभ्यः स्वाहा ॥३७॥
ओमिन्द्राय स्वाहा ॥३८॥ ओं बृहस्पतये स्वाहा ॥३९॥
ओं प्रजापतये स्वाहा ॥४०॥ ओं ब्रह्मणे स्वाहा ॥४१॥
ओं देवेभ्यः स्वाहा ॥४२॥ ओं परमेष्ठिने स्वाहा ॥४३॥
ओं तद् ब्रह्म ॥४४॥ ओं तद्वायुः ॥४५॥
ओं तदात्मा ॥ ४६ ॥ ओं तत्सत्यम् ॥४७॥
ओं तत्सर्वम् ॥४८॥ ओं तत्पुरोर्नमः ॥४९॥

अन्तश्चरति भूतेषु गुहायां विश्वमूर्तिषु । त्वं यज्ञस्त्वं वषट्कारस्त्वमिन्द्रस्त्वं रुद्रस्त्वः विष्णुस्त्वं ब्रह्म त्वं प्रजापतिः । त्वं तदाप आपो ज्योती रसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः सुवरों स्वाहा ॥ ५० ॥

इन ५० मन्त्रों से आज्याहुति देके तदनन्तर जो संन्यास लेनेवाला है, वह पांच वा छ: केशों को छोड़कर पृष्ठ ५९-६१ में लिखे प्रमाणे डाढ़ी मूंछ केश लोमों का छेदन अर्थात् क्षौर कराके यथावत् स्नान करे। तदनन्तर संन्यास लेनेवाला पुरुष अपने शिर पर पुरुषसूक्त के मन्त्रों से १०८ एक सौ आठ बार अभिषेक करे । पुनः पृष्ठ १५५-१५६ में लिखे प्रमाणे आचमन और प्राणायाम करके, हाथ जोड़, वेदी के सामने नेत्रोन्मीलन कर मन से

ओं ब्रह्मणे नमः ॥१॥ ओं सूर्याय नमः ॥२॥
ओमात्मने नमः ॥३॥ ओमिन्द्राय नमः ॥४॥
ओं सोमाय नमः ॥५॥ ओमन्तरात्मने नमः ॥६॥

इन छह मन्त्रों को जपके-

ओमात्मने स्वाहा ॥१॥ ओमन्तरात्मने स्वाहा ॥२॥
ओं परमात्मने स्वाहा ॥३॥ ओं प्रजापतये स्वाहा ॥४॥

इन चार मन्त्रों से ४ चार आज्याहुति देकर, कार्यकर्त्ता – संन्यास ग्रहण करनेवाला पुरुष पृष्ठ १०८ – १०९ में लिखे प्रमाणे मधुपर्क की क्रिया करे । तदनन्तर प्राणायाम करके-

ओं भूः सावित्रीं प्रविशामि तत्सवितुर्वरेण्यम् ॥१॥

ओं भुवः सावित्रीं प्रविशामि भर्गो देवस्य धीमहि ॥२॥

ओं स्वः सावित्रीं प्रविशामि धियो यो नः प्रचोदयात् ॥३॥

ओं भूर्भुवः स्वः । सावित्रीं प्रविशामि । तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि । धियो यो नः प्रचोदयात् ॥४॥

इन मन्त्रों को मन से जपे ।

ओमग्नये स्वाहा ॥१॥ ओं भूः प्रजापतये स्वाहा ॥२॥
ओमिन्द्राय स्वाहा ॥३॥ ओं प्रजापतये स्वाहा ॥४॥
ओं विश्वेभ्यो देवेभ्यः स्वाहा ॥५॥ ओं ब्रह्मणे स्वाहा ॥६॥
ओं प्राणाय स्वाहा ॥७॥ ओमपानाय स्वाहा ॥८॥
ओं व्यानाय स्वाहा ॥९॥ ओमुदानाय स्वाहा ॥१०॥
ओं समानाय स्वाहा ॥११॥

इन मन्त्रों से वेदी में आज्याहुति देके-

ओं भूः स्वाहा ॥१॥

इस मन्त्र से पूर्णाहुति करके-

पुत्रैषणायाश्च वित्तैषणायाश्च लोकैषणायाश्चोत्थायाथ भिक्षाचर्यं चरन्ति॥
– श० कां० १४॥

पुत्रैषणा वित्तैषणा लोकैषणा मया परित्यक्ता, मत्तः सर्वभूतेभ्योऽभयमस्तु स्वाहा ॥

इस वाक्य को बोलके सब के सामने जल को भूमि में छोड़ देवे। पीछे नाभिमात्र जल में पूर्वाभिमुख खड़ा रहकर –

ओं भूः सावित्रीं प्रविशामि तत्सवितुर्वरेण्यम् ॥

ओं भुवः सावित्रीं प्रविशामि भर्गो देवस्य धीमहि ॥

ओं स्वः सावित्रीं प्रविशामि धियो यो नः प्रचोदयात् ॥

ओं भूर्भुवः स्वः सावित्रीं प्रविशामि परो रजसेऽसावदोम् ॥

इस का मन से जप करके प्रणवार्थ परमात्मा का ध्यान करके पूर्वोक्त (पुत्रैषणायाश्च ० ) इस समग्र कण्डिका को बोलके प्रेष्य मन्त्रोच्चारण करे ।

ओं भूः संन्यस्तं मया । ओं भुवः संन्यस्तं मया । ओं स्वः संन्यस्तं मया ॥

इस मन्त्र का मन से उच्चारण करे । तत्पश्चात् जल से अञ्जलि भर पूर्वाभिमुख होकर संन्यास लेनेवाला-

ओम् अभयं सर्वभूतेभ्यो मत्तः स्वाहा ॥

इस मन्त्र से दोनों हाथ की अञ्जलि को पूर्व दिशा में छोड़ देवे।

येना॑ स॒हस्तं॒ वह॑सि॒ येना॑ग्ने॒ सर्ववेद॒सम् ।
तेने॒मं य॒ज्ञं नो॑ वह॒ स्व॒र्दे॒वेषु गन्त॑वे ॥
– अथर्व ० का ० ९। सू० ५। मं० १७ ॥

और इस पर स्मृति है-

प्राजापत्यां निरूप्येष्टि सर्ववेदसदक्षिणाम् ।
आत्मन्यग्नीन् समारोप्य ब्राह्मणः प्रव्रजेद् गृहात् ॥

इस श्लोक का अर्थ पहले लिख दिया है ।

इस के पश्चात् मौन करके शिखा के लिये जो पांच वा सात केश रक्खे थे, उन को एक-एक उखाड़ और यज्ञोपवीत उतारकर हाथ में ले जल की अञ्जलि भर-

ओमापो वै सर्वा देवताः स्वाहा ॥ ओं भूः स्वाहा ॥

इन मन्त्रों से शिखा के बाल और यज्ञोपवीत सहित जलाञ्जलि को जल में होम कर देवे ।

उस के पश्चात् आचार्य शिष्य को जल से निकालके काषाय वस्त्र की कोपीन, कटिवस्त्र, उपवस्त्र, अंगोछा, प्रीतिपूर्वक देवे। और शिष्य पृष्ठ ७४ में लिखे प्रमाणे (यो मे दण्ड: ० ) इस मन्त्र से दण्ड धारण करके आत्मा में आहवनीयादि अग्नियों का आरोपण करे ।

यो वि॒द्याद् ब्रह्म॑ प्र॒त्यक्षं परू॑णि॒ यस्य॑ संभा॒रा ऋ यस्या॑नु॒क्यम् ॥१॥

सामा॑नि॒ यस्य॒ लोमा॑नि॒ यजुर्हृद॑यमुच्यते॑ परि॒स्तर॑ण॒मिद्ध॒विः ॥२॥

यद्वा अति॑थपति॒रति॑थीन् प्रति॒ि पश्य॑ति देव॒यज॑नं॒ प्रेक्ष॑ते॒ ॥३॥

यद॑भि॒वद॑ति दी॒क्षामुपै॑ति॒ यदु॑द॒कं याच॑त्य॒पः प्रण॑य ॥४॥

या ए॒व य॒ज्ञ आप॑ः प्रणी॒यन्ते॒ ता ए॒व ताः ॥५॥

यदा॑वस॒थान् क॒ल्पय॑न्ति सदो हविधा॒नान्ये॒व तत्र्कल्पयन्ति ॥६॥

यदु॑स्तृ॒णन्ति॑ ब॒र्हिरे॒व तत् ॥७॥

तेषा॒मास॑न्नाना॒मति॑थिरा॒त्मन् जुहोति ॥८॥

स्रुचा हस्ते॑न प्रा॒णे पे॑ स्रुक्का॒रेण॑ वषट्का॒रेण॑ ॥९॥

ए॒ते वै प्रि॒याश्चाप्रि॒याश्च॒त्र्त्वजः॑ स्व॒र्गं लो॒कं ग॒मयन्ति यदति॑थयः ॥१०॥

प्रा॒जा॒प॒त्यो वा ए॒तस्य॑ य॒ज्ञो वित॑तो॒ य उ॑प॒हर॑ति ॥११॥

प्र॒जाप॑ते॒र्वा ए॒ष वि॑िक्र॒मान॑नु॒विक्र॑मते॒ य उ॑प॒हर॑ति ॥१२॥

योऽति॑थीनां॒ स आ॑हव॒नीयो॒ यो वेश्म॑नि॒ स गार्हपत्यो॒ यस्मिन्प च॑न्ति॒ सद॑क्षिणा॒ग्निः ॥१३॥

इ॒ष्टं च॒ वा ए॒ष पू॒र्तं च॑ गृ॒हाणा॑म॒श्नाति॒ यः पूर्वोऽति॑थे-र॒श्नाति॑ ॥१४॥

अथर्व० का० ९। सू० ६ ॥

तस्यैवं विदुषो यज्ञस्यात्मा यजमानः श्रद्धा पत्नी शरीरमिध्ममुरो वेदिर्लोमानि बर्हिर्वेद: शिखा हृदयं यूपः काम आज्यं मन्युः पशुस्तपोऽग्निर्दमः शमयिता दक्षिणा वाग्घोता प्राण उद्गाता चक्षुरध्वर्युर्मनो ब्रह्म श्रोत्रमग्नीत् । यावद् ध्रियते सा दीक्षा यदश्नाति तद्धविर्यत्पिबति तदस्य सोमपानम् । यद्रमते तदुपसदो यत्सञ्चरत्युप- विशत्युत्तिष्ठते च स प्रवर्ग्यो यन्मुखम् तदाहवनीयो या व्याहृति- राहुतिर्यदस्य विज्ञानं तज्जुहोति यत्सायं प्रातरत्ति तत्समिधं यत्प्रातर्मध्यन्दिनः सायं च तानि सवनानि । ये अहोरात्रे ते दर्शपौर्णमासौ येऽर्द्धमासाश्च मासाश्च ते चातुर्मास्यानि य ऋतवस्ते पशुबन्धा ये संवत्सराश्च परिवत्सराश्च तेऽहर्गणाः सर्ववेदसं वा एतत्सत्रं यन्मरणं तदवभृथः । एतद्वै जरामर्यमग्निहोत्रः सत्रं य एवं विद्वानुदगयने प्रमीयते देवानामेव महिमानं गत्वाऽऽदित्यस्य सायुज्यं गच्छत्यथ यो दक्षिणे प्रमीयते पितृणामेव महिमानं गत्वा चन्द्रमसः सायुज्यं सलोकतामाप्नोत्येतौ वै सूर्याचन्द्रमसोर्महिमानौ ब्राह्मणो विद्वानभिजयति तस्माद् ब्रह्मणो महिमानमाप्नोति तस्माद् ब्रह्मणो महिमानमित्युपनिषत् ॥
-तैत्ति० आ० प्रपा १०। अनु० ६४ ।।

अथ संन्यासे पुनः प्रमाणानि-

न्यास इत्याहुर्मनीषिणो ब्रह्माणम् । ब्रह्मा विश्वः कतमः स्वयम्भूः प्रजापतिः संवत्सर इति । संवत्सरोऽसावादित्यो य एष आदित्ये पुरुषः स परमेष्ठी ब्रह्मात्मा । याभिरादित्यस्तपति रश्मिभिस्ताभिः पर्जन्यो वर्षति पर्जन्येनौषधि – वनस्पतयः प्रजायन्त ओषधिवनस्पतिभिरन्नं भवत्यन्नेन प्राणाः प्राणैर्बलं बलेन तपस्तपसा श्रद्धा श्रद्धया मेधा मेधया मनीषा मनीषया मनो मनसा शान्तिः शान्त्या चित्तं चित्तेन स्मृतिः स्मृत्या स्मार स्मारेण विज्ञानं विज्ञानेनात्मानं वेदयति तस्मादन्नं ददन्त्सर्वाण्येतानि ददात्यन्नात् प्राणा भवन्ति भूतानाम् । प्राणैर्मनो मनसश्च विज्ञानं विज्ञानादानन्दो ब्रह्मयोनिः । स वा एष पुरुषः पञ्चधा पञ्चात्मा येन सर्वमिदं प्रोतं पृथिवी चान्तरिक्षं च द्यौश्च दिशश्चावान्तरदिशश्च स वै सर्वमिदं जगत् स भूतः स भव्यं जिज्ञासक्लृप्त ऋतजा रयिष्ठाः श्रद्धा सत्यो महस्वांस्तमसो वरिष्ठात् । ज्ञात्वा तमेवं मनसा हृदा च भूयो मृत्युमुपयाहि विद्वान् । तस्मात् न्यासमेषां तपसामति- रिक्तमाहुः । वसुरण्वो विभूरसि प्राणे त्वमसि सन्धाता ब्रह्मस्त्वमसि विश्वसृत् तेजोदास्त्वमस्यग्नेरसि वर्चोदास्त्वमसि सूर्यस्य द्युम्नोदास्त्वमसि चन्द्रमस उपयामगृहीतोऽसि ब्रह्मणे त्वा महसे । ओमित्यात्मानं युञ्जीत । एतद्वै महोपनिषदं देवानां गुह्यम् । य एवं वेद ब्रह्मणो महिमानमाप्नोति तस्माद् ब्रह्मणो महिमानमित्युप- निषत् ॥
-तैत्ति० आ० प्रपा० १० । अनु० ६३॥

संन्यासी का कर्त्तव्याऽकर्त्तव्य

दृते॒ वृ॒हं मा मि॒त्रस्य॑ मा॒ चक्षु॑षा॒ सर्वा॑णि भू॒तानि॒ समा॑क्षन्ताम् । मि॒त्रस्या॒हं चक्षु॑षा॒ सर्वा॑णि भू॒तानि॒ सर्वा॑क्षे । मि॒त्रस्य॒ चक्षु॑षा॒ समीक्षामहे ॥१॥
यजु० अ० ३६ । मं० १८ ।।

अर्थ – हे (दृते) सर्वदुःखविदारक परमात्मन् ! तू (मा) मुझ को संन्यासमार्ग में (गृह) बढ़ा । हे सर्वमित्र ! तू (मित्रस्य) सर्वसुहृद् आप्त पुरुष की (चक्षुषा) दृष्टि से (मा) मुझ को सब का मित्र बना । जिस से (सर्वाणि) सब ( भूतानि ) प्राणिमात्र मुझ को मित्र की दृष्टि से (समीक्षन्ताम्) देखें, और ( अहम् ) मैं (मित्रस्य) मित्र की (चक्षुषा ) दृष्टि से (सर्वाणि भूतानि) सब जीवों को (समीक्षे) देखूं । इस प्रकार

ओम् अग्ने॒नय॑ सु॒पथा॑ रा॒येऽअ॒स्मान् विश्वा॑नि देव व॒युना॑नि वि॒द्वान् ।
यु॒यो॒ध्यस्मज्जु॑हु॒रा॒णमेनो॒ भूमि॑ष्ठान्ते॒ नम॑ऽउक्त विधेम॒ स्वाहा॑ ॥२॥

यस्तु सर्वाणि भूतान्या॒त्मन्ने॒वानु॒पश्य॑ति ।
स॒र्व॒भूतेषु॑ चा॒त्मानं॒ ततो॒ न वि चि॑िकित्सति ॥३॥

यस्मिन्त्सर्वाणि भू॒तान्या॒त्मैवाभू॑द्विजान॒तः ।
तत्र॒ को मोह॒ः कः शोक॑ऽ एक॒त्वम॑नु॒पश्य॑तः ॥४॥
यजु० अ० ४० । मं० १६, ६, ७ ।।

प॒रीत्य॑ भू॒तानि॑ प॒रीत्य॑ लो॒कान् प॒रीत्य॒ सर्वा॑ प्र॒दिशो॒ दिश॑श्च ।
उ॒प॒स्थाय॑ प्रथम॒जामृ॒तस्या॒त्मना॒त्मान॑म॒भि सं वि॑वेश ॥५॥
यजु० अ० ३२ । मं० ११ ।।

ऋ॒चो अ॒क्षरे॑ पर॒मे व्यो॑म॒न् यस्मि॑न् दे॒वा अधि॒ विश्वे॑ निषे॒दुः ।
यस्तन्न वेद् किमृचा करिष्यति य इत्तद्विदुस्त इ॒मे समा॑सते ॥६॥
ऋ० म० १ सूक्त १६४ मं० ३९ ।।

समाधिनिर्धूतमलस्य चेतसो निवेशितस्यात्मनि यत् सुखं भवेत् ।
न शक्यते वर्णयितुं गिरा तदा स्वयं तदन्तःकरणेन गृह्यते ॥७॥
-कठवल्ली ॥

सम्मानाद् ब्राह्मणो नित्यमुद्विजेत विषादिव ।
अमृतस्येव चाकाङ्क्षेदवमानस्य सर्वदा ॥ १ ॥

यमान् सेवेत सततं न नियमान् केवलान् बुधः ।
यमान् पतत्यकुर्वाणो नियमान् केवलान् भजन् ॥२॥

अर्थ– संन्यासी जगत् के सम्मान से विष के तुल्य डरता रहे और अमृत के समान अपमान की चाहना करता रहे, क्योंकि जो अपमान से डरता और मान की इच्छा करता है, वह प्रशंसक होकर मिथ्यावादी और पतित हो जाता है । इसलिए चाहे निन्दा चाहे प्रशंसा, चाहे मान चाहे अपमान, चाहे जीना चाहे मृत्यु, चाहे हानि चाहे लाभ हो, चाहे कोई प्रीति करे चाहे वैर बांधे, चाहे अन्न पान वस्त्र उत्तम स्थान न मिले वा मिले, चाहे शीत उष्ण कितना ही क्यों न हो, इत्यादि सब का सहन करे और अधर्म का खण्डन तथा धर्म का मण्डन सदा करता रहे। इससे परे उत्तम धर्म दूसरे किसी को न माने । परमेश्वर से भिन्न किसी की उपासना न करे । न वेदविरुद्ध कुछ माने । परमेश्वर के स्थान में सूक्ष्म वा स्थूल तथा जड़ और जीव को भी कभी न माने। आप सदा परमेश्वर को अपना स्वामी माने, और आप सेवक बना रहे। वैसा ही उपदेश अन्य को भी किया करे। जिस-जिस कर्म से गृहस्थों की उन्नति हो, वा माता, पिता पुत्र, स्त्री, पति, बन्धु, बहिन, मित्र, पाड़ोसी, नौकर, बड़े और छोटों में विरोध छूट कर प्रेम बढ़े, उस-उस का उपदेश करे ।

जो वेद से विरुद्ध मतमतान्तर के ग्रन्थ बायबल, कुरान, पुराण, मिथ्याभिलाप तथा काव्यालङ्कार कि जिन के पढ़ने-सुनने से मनुष्य विषयी और पतित हो जाते हैं, उन सब का निषेध करता रहे। विद्वानों और परमेश्वर से भिन्न न किसी को देव तथा विद्या, योगाभ्यास, सत्सङ्ग और सत्यभाषणादि से भिन्न न किसी को तीर्थ और विद्वानों की मूर्तियों से भिन्न पाषाणादि मूर्तियों को न माने, न मनवावे । वैसे ही गृहस्थों को माता पिता आचार्य अतिथि, स्त्री के लिये विवाहित पुरुष और पुरुष के लिये विवाहित स्त्री की मूर्ति से भिन्न किसी की मूर्ति को पूज्य न समझावे, किन्तु वैदिक मत की उन्नति और वेदविरुद्ध पाखण्डमतों के खण्डन करने में सदा तत्पर रहे ।

वेदादि शास्त्रों में श्रद्धा और तद्विरुद्ध ग्रन्थों वा मतों में अश्रद्धा किया कराया करे । आप शुभ गुण, कर्म, स्वभावयुक्त होकर सब को इसी प्रकार के करने में प्रयत्न किया करे और जो पूर्वोक्त उपदेश लिखे हैं, उन-उन अपने संन्यासाश्रम के कर्त्तव्य कर्मों को किया करे। खण्डनीय कर्मों का खण्डन करना कभी न छोड़े। आसुर अर्थात् अपने को ईश्वर ब्रह्म माननेवालों का भी यथावत् खण्डन करता रहे। परमेश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव और न्याय आदि गुणों का प्रकाश करता रहे। इस प्रकार कर्म करता हुआ स्वयम् आनन्द में रहकर सब को आनन्द में रक्खे | सर्वदा (अहिंसा) निर्वैरिता, (सत्यम्) सत्य बोलना, सत्य मानना, सत्य करना, (अस्तेयम्) मन, कर्म, वचन से अन्याय करके पर-पदार्थ का ग्रहण न करना चाहिये, न किसी को करने का उपदेश करे । (ब्रह्मचर्यम्) सदा जितेन्द्रिय होकर अष्टविध मैथुन का त्याग रखके वीर्य की रक्षा और उन्नति करके चिरञ्जीवी होकर सब का उपकार करता रहे। (अपरिग्रहः) अभिमानादि दोष रहित, किसी संसार के धनादि पदार्थों में मोहित होकर कभी न फंसे । इन पांच यमों का सेवन सदा किया करे और इन के साथ ५ पांच नियम अर्थात् (शौच ) बाहर – भीतर से पवित्र रहना, (सन्तोष) पुरुषार्थ करते जाना और हानि-लाभ में प्रसन्न और अप्रसन्न न होना । (तपः) सदा पक्षपातरहित न्यायरूप धर्म का सेवन प्राणायामादि योगाभ्यास करना । ( स्वाध्याय) सदा प्रणव का जप अर्थात् मन में चिन्तन और उस के अर्थ – ईश्वर का विचार करते रहना । (ईश्वर-प्रणिधान) अर्थात् अपने आत्मा को वेदोक्त परमेश्वर की आज्ञा में समर्पित करके परमानन्द परमेश्वर के सुख को जीता हुआ भोगकर शरीर छोड़के सर्वानन्दयुक्त मोक्ष को प्राप्त होना संन्यासियों के । मुख्य कर्म हैं ।

हे जगदीश्वर ! सर्वशक्तिमन् सर्वान्तर्यामिन्, दयालो, न्यायकारिन्, सच्चिदानन्दानन्त नित्य शुद्ध-बुद्ध-मुक्तस्वभाव, अजर, अमर, पवित्र, परमात्मन् ! आप अपनी कृपा से संन्यासियों को पूर्वोक्त कर्मों में प्रवृत्त रखके परममुक्ति – सुख को प्राप्त कराते रहिए ||

॥ इति संन्याससंस्कारविधिः समाप्तः ॥