दिनचर्या मंत्र
प्रातः कालीन प्रार्थना:
ऋग्वेद मण्डल 7, सूक्त 41, मन्त्र 1-5
ओ३म्। प्रातरग्निं प्रातरिन्द्रं हवामहे प्रातर्मित्रावरुणा प्रातरश्विना। प्रातर्भगं पूषणं ब्रह्मणस्पतिं प्रात: सोममुत रुद्रं हुवेम ।।१।।
अर्थ- हम प्रतिदिन प्रात:= प्रभात बेला में अग्निम्= स्वप्रकाशस्वरूप इन्द्रम्= परमैश्वर्य युक्त मित्रावरुणा= सर्वशक्तिमान् अश्विना= उस परमात्मा की हवामहे= स्तुति करते हैं और प्रात:= प्रभात वेला में भगम्= सेवनीय, ऐश्वर्य युक्त पूषणम्= पुष्टिकर्त्ता ब्रह्मणस्पतिम्= अपने उपासक, वेद और ब्रह्माण्ड के पालन करने हारे सोमम्= अन्तर्यामी प्रेरक उत= और रुद्रम्= पापियों को रुलाने हारे और सर्वरोगनाशक जगदीश्वर की हुवेम= स्तुति करते हैं।
ओ३म्। प्रातर्जितं भगमुग्रं हुवेम वयं पुत्रमदितेर्यो विधर्ता। आध्रश्चिद्यं मन्यमानस्तुरश्चिद्राजा चिद्यं भगं भक्षीत्याह ।।२।।
अर्थ- प्रात:= ब्रह्म मुहूर्त में जितम्= जयशील भगम्= ऐश्वर्य के दाता उग्रम्= तेजस्वी अदिते:= समस्त ब्रह्माण्ड के पुत्रम्= रक्षक और य:= जो विधर्ता= उसको विविध प्रकार से धारण करने वाला है उसकी वयम्= हम हुवेम= स्तुति करते हैं। यम् चित्= जिसको आध्र:= सब ओर से धारणकर्त्ता मन्यमान:= जानने हारा तुरश्चित्= दुष्टों को दण्ड देने हारा और राजा= प्रकाश स्वरूप सबका स्वामी जानते हैं और यम् चित्= जिस भगम्= सेवनीय, ऐश्वर्ययुक्त ईश्वर का भक्षीति= इस प्रकार मैं सेवन करता हूँ, स्तुति करता हूँ, उसी का आह= उपदेश करता हूँ।
ओ३म्। भग प्रणेतर्भग सत्यराधो भगेमां धियमुदवा ददन्न:। भग प्रणो जनय गोभिरश्वैर्भग प्र नृभिर्नृवन्त: स्याम ।।३।।
अर्थ- हे भग= सेवनीय, ऐश्वर्ययुक्त प्रभो! प्रणेत:= आप सबके उत्पादक, सत्याचार में प्रेरक एवं सत्यराध:= सत्य धन अर्थात् मोक्ष रूप ऐश्वर्य को देने हारे हो। आप न:= हमारे इमाम् धियम्= इस बुद्धि को ददत्= दीजिए और उस बुद्धि के दान से हमारी उदव= रक्षा कीजिए। हे भग= ऐश्वर्ययुक्त प्रभो! न:= हमारे लिए गोभि:= गाय आदि और अश्वै:= घोड़े आदि उत्तम पशुओं के योग से राज्यश्री को प्रजनय= प्रकट कीजिए। भग= हे सेवनीय प्रभो! आपकी कृपा से हम लोग नृभि:= उत्तम मनुष्यों से तथा नृवन्त:= श्रेष्ठ वीर पुरुषों वाले प्रस्याम= होवें।
ओ३म्। उतेदानीं भगवन्त: स्यामोत प्रपित्व उत मध्ये अह्नाम्। उतोदिता मघवन्त्सूर्यस्य वयं देवानां सुमतौ स्याम ।।४।।
अर्थ- हे भगवन्! आपकी कृपा और अपने पुरुषार्थ से हम लोग इदानीम्= इस प्रभात वेला में उत= और अह्नाम्= दिनों के प्रपित्वे= उदयकाल में मध्ये= मध्य काल में भगवन्त:= सभी प्रकार के धन-ऐश्वर्य से सम्पन्न एवं शक्तिमान् स्याम= होवें। उत= और मघवन्= हे ऐश्वर्यों की वर्षा करने हारे प्रभो! सूर्यस्य उदिता= सूर्य के उदयकाल में वयम्= हम लोग देवानाम्= पूर्ण विद्वान्, धार्मिक, आप्त लोगों की सुमतौ= कल्याणकारी बुद्धि में अर्थात् उनके विचार को मानने वाले स्याम= होवें।
ओ३म्। भग एव भगवाँ अस्तु देवास्तेन वयं भगवन्त: स्याम। तं त्वा भग सर्व इज्जोहवीति स नो भग पुरएता भवेह ।।५।।
अर्थ- हे भग= सकल ऐश्वर्य सम्पन्न जगदीश्वर! जिससे तम् त्वा= उस आपकी सर्व:= सब सज्जन इज्जोहवीति= निश्चय करके प्रशंसा करते हैं स:= वे आप ही भग= ऐश्वर्य प्रदान करने वाले इह= इस संसार में तथा न:= हमारे गृहस्थाश्रम में पुरएता= अग्रगामी और हमें आगे-आगे सत्यकर्मों में बढ़ाने हारे भव= होइये। हे प्रभो! भग एव= सम्पूर्ण ऐश्वर्ययुक्त और समस्त ऐश्वर्य के दाता होने से आप ही हमारे भगवान्= पूजनीय देव अस्तु= हो जाइये। तेन= आपके कारण अर्थात् आपकी प्रार्थना और उपासना से देवा वयम्= हम विद्वान् लोग भगवन्त:= सकल ऐश्वर्य सम्पन्न होके सब संसार के उपकार में तन, मन और धन से प्रवृत्त स्याम= होवें।
सायं कालीन मंत्र
(यजुर्वेद 34.1-6)
रात्रि को दस बजे के लगभग शयन करते समय शय्या पर बैठकर निम्नलिखित ‘शिव संकल्प’ मन्त्रों का अर्थ चिन्तन पूर्वक पाठ करें। मानव मन में संकल्प-विकल्प के माध्यम से विचार प्रवाह निरन्तर चलता रहता है। विचार जीवन की दिशा के निर्धारक होते हैं – ‘‘यन्मनसा ध्यायति तद्वाचा वदति यद्वाचा वदति तत्कर्मणा करोति यत्कर्मणा करोति तदभि सम्पद्यते”
इस सिद्धान्त के अनुसार मनुष्य जो मन में सोचता है, वही वाणी से बोलता है, वही करता है और कर्म के अनुसार उत्तम या अधम उसका जीवन बन जाता है। ‘‘मन एव मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयो:’’ मन ही बन्धन और मुक्ति का निर्धारक है। ‘‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत” ‘मन चंगा तो कठोती में गंगा’ आदि सुभाषित वाक्य मन के महत्त्व की ओर संकेत कर रहे हैं। अत: वेद में परम कारुणिक परमेश्वर ने मन के समस्त कार्यों की ओर संकेत करते हुए निर्देश दिया है कि मन को कल्याणकारी विचारों से परिपूर्ण रखो।
ओ३म्। यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति। दूरङ्गमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मन: शिवसङ्कल्पमस्तु ।।१।।
अर्थ – हे प्रभो! यत= जो दैवम्= दिव्य गुणों वाला मेरा मन जाग्रत:= जागते हुए दूरम्= दूर उदैति= चला जाता है। तत् उ= वही मेरा मन सुप्तस्य= सोये हुए का भी तथैव= उसी प्रकार दूर एति= चला जाता है। दूरङ्गमम्= दूर तक जाने वाला यह मन ज्योतिषाम् ज्योति:= ज्ञान का प्रकाश कराने वाली इन्द्रियों का भी प्रकाशक है और एकम्= यह एक ही है। तत्= वह मे= मेरा मन:= मन शिव= शुभ, कल्याणकारी संकल्पम्= विचारों वाला अस्तु= होवे।
ओ३म्। येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीरा:। यदपूर्वं यक्षमन्त: प्रजानां तन्मे मन: शिवसङ्कल्पमस्तु ।।२।।
अर्थ- हे प्रभो! येन= जिस मन के द्वारा धीरा:= धैर्यशाली अपस:= कर्मशील और मनीषिण:= मनस्वी लोग यज्ञे= अग्निहोत्र आदि यज्ञों में अथवा योगाभ्यास में तथा विदथेषु= ज्ञान-विज्ञान एवं युद्धादि व्यवहारों में कर्माणि= कर्मों को कृण्वन्ति= करते हैं। यत्= जो मन अपूर्वम्= आश्चर्यजनक शक्ति से युक्त और यक्षम्= पूजनीय हैं, जो प्रजानाम् अन्त:= प्राणियों के अन्दर रहता है। तत्= वह मे= मेरा मन:= मन शिव= शुभ, कल्याणकारी संकल्पम्= विचारों वाला अस्तु= होवे।
ओ३म्। यत्प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च यज्ज्योतिरन्तरमृतम्प्रजासु। यस्मान्न ऋते किञ्चन कर्मक्रियते तन्मे मन: शिवसङ्कल्पमस्तु ।।३।।
अर्थ- हे प्रभो! यत्= जो मन प्रज्ञानम्= उत्तम ज्ञान का साधक है उत= और चेत:= स्मृति का साधक है। च= लज्जा आदि कर्मों को करने वाला है। धृति:= धैर्य रूप है और जो प्रजासु= मनुष्यों के अन्त:= अन्दर अमृतम्= नाश रहित ज्योति:= ज्योति है; यस्मात् ऋते= जिसके बिना किञ्चन= कोई भी कर्म= कर्म न क्रियते= नहीं किया जाता। तत्= वह मे= मेरा मन:= मन शिव= शुभ, कल्याणकारी संकल्पम्= विचारों वाला अस्तु= होवे।
ओ३म्। येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत् परिगृहीतममृतेन सर्वम्। येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मन: शिवसङ्कल्पमस्तु ।।४।।
अर्थ- हे प्रभो! येन= जिस अमृतेन= नाश रहित, परमात्मा के साथ संयुक्त मन से भूतम् भविष्यत्= भूत, वर्तमान और भविष्यत् काल में होने वाला इदम् सर्वम्= यह सब व्यवहार परिगृहीतम्= सब ओर से गृहीत= ज्ञात होता है; येन= जिसके द्वारा सप्तहोता= सात होताओं द्वारा सम्पन्न किया जाने वाला यज्ञ:= अग्निष्टोम आदि यज्ञ अथवा पांच ज्ञानेन्द्रियों, बुद्धि और आत्मा रूपी सात होताओं के साथ मिलकर शुभ कर्म रूपी यज्ञ तायते= सम्पन्न किया जाता है, तत्= वह मे= मेरा मन:= मन शिव= शुभ, कल्याणकारी संकल्पम्= विचारों वाला अस्तु= होवें।
ओ३म्। यस्मिन्नृच: साम यजूšषि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथनाभाविवारा:। यस्मिंश्चित्तँ सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मन: शिवसङ्कल्पमस्तु ।।५।।
अर्थ- हे प्रभो! यस्मिन्= जिस मन में रथ नाभौ इव= जैसे रथचक्र के मध्य धुरा में आरे लगे होते हैं, वैसे ही ऋच: साम यजूšषि= ऋक्, साम, यजुष् इन तीन प्रकार के मन्त्रों से युक्त ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद ये चारों वेद प्रतिष्ठिता:= प्रतिष्ठित हैं- संयुक्त हैं; यस्मिन्= जिस मन में प्रजानाम्= प्रजाओं का सर्वम्= सब चित्तम्= पदार्थ विषयक ज्ञान ओतम्= ओत-प्रोत है, समाया हुआ है। तत्= वह मे= मेरा मन:= मन शिव= शुभ, कल्याणकारी संकल्पम्= विचारों वाला अस्तु= होवे।
ओ३म्। सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान्नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिन इव।
हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मन: शिवसङ्कल्पमस्तु ।।६।।
अर्थ- हे प्रभो! यत्= जो मन सुषारथि:= अच्छे प्रकार रथ चलाने वाला- सारथि जैसे अभीशुभि:= लगाम की रस्सियों से वाजिन अश्वान् इव= सुशिक्षित अश्वों को इच्छानुसार चलाता है उसी प्रकार यह मन मनुष्यान्= मनुष्यों को नेनीयते= बार-बार इधर-उधर ले जाता है, यत्= जो मन हृत्प्रतिष्ठम्= हृदय में स्थित है, अजिरम्= वृद्धावस्था से रहित और जविष्ठम्= अत्यन्त वेगवान् है। तत्= वह मे= मेरा मन:= मन शिव= शुभ, कल्याणकारी संकल्पम्= विचारों वाला अस्तु= होवे।
भोजन मंत्र
भोजन से पूर्व
ओ३म्। अन्नपतेऽन्नस्य नो देह्यनमीवस्य शुष्मिण:।
प्र प्र दातारं तारिष ऊर्ज्जं नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे ।।
यजुर्वेद ११.८३
भावार्थ- हे अन्न के स्वामी प्रभो! आप हमें पुष्टिकारक एवं रोगनाशक अन्न प्रदान करो। अन्न का दान करने वालों को समृद्ध बनाओ। आप हमारे कुटुम्बियों और पशुओं को ओज प्रदान करो।
भोजन के पश्चात
ओ३म्। मोघमन्नं विन्दते अप्रचेता: सत्यं ब्रवीमि वध इत्स तस्य।
नार्यमणं पुष्यति नो सखायं केवलाघो भवति केवलादी ।।
ऋग्वेद १०.११७.६
भावार्थ- जो स्वार्थी व्यक्ति अन्न आदि भोग्य पदार्थों को केवल अपने लिए ही प्राप्त करता है, उनसे न तो ईश्वर की उपासना यज्ञ आदि करता है, न विद्वानों की सेवा करता है और न ही बन्धु-बान्धवों को तृप्त करता है; उसका अन्न आदि भोग्य पदार्थ प्राप्त करना निष्फल है। यह बात बिल्कुल सत्य है। क्योंकि वह उसके नाश का कारण बनेगा। केवल+आदी= केवल स्वयं ही खाने वाला केवल+अघ:= केवल पाप रूप भवति= होता है।
स्नान के मंत्र
स्नान करते समय उच्चारणीय मन्त्र
ओ३म्। आपो हि ष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन।
महे रणाय चक्षसे ।।१।।
अथर्ववेद १.५.१
भावार्थ- ये जल सुख प्रदान करने वाले, बल-उत्साह प्रदान करने वाले और अत्यन्त रमणीय रूप को देने वाले हैं।
ओ३म्। यो व: शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह न:।
उशतीरिव मातर: ।।२।।
अथर्ववेद १.५.२
भावार्थ- जैसे मां बच्चों का कल्याण करती है उसी प्रकार जलों के कल्याणकारी रस को हम प्राप्त करें।
ओ३म्। अप्सु मे सोमो अब्रवीदन्तर्विश्वानि भेषजा।
अग्निं च विश्व शं भुवम् ।।३।।
अथर्ववेद १.६.२
भावार्थ- परमेश्वर ने वेद मन्त्रों के माध्यम से यह बताया है कि जलों के अन्दर रोग निवारक एवं आरोग्य दायक शक्ति है तथा विश्व का कल्याण करने वाली अग्नि विद्यमान् है।