Agnihotra – अग्निहोत्र (देवयज्ञ)

आचमन मन्त्र

निम्नलिखित तीन मन्त्र बोलकर दायीं हथेली में जल लेकर तीन आचमन करें। जल की मात्रा इतनी हो कि वह जल कण्ठ से नीचे हृदय तक पहुंचे, न उससे अधिक, न न्यून। इससे अल्प मात्रा में कण्ठस्थ कफ व पित्त की निवृत्ति होती है।

ओ३म् अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा। इससे पहला आचमन करें।

ओ३म् अमृतापिधानमसि स्वाहा। इससे दूसरा आचमन करें।

ओ३म् सत्यं यश: श्रीर्मयि श्री: श्रयतां स्वाहा। इससे तीसरा आचमन करें।

तैत्तिरीय आरण्यक – प्र. १०, अनु. ३२.३५

भावार्थ- हे सबके रक्षक प्रभो! हम आपकी अमृत रूपी गोद में बैठकर अनुभव कर रहे हैं कि आपकी सत्ता ऊपर-नीचे सब ओर है। आप ही सबके आधार हो। हे अमृत स्वरूप! ऐसी कृपा करो कि हमारा जीवन सत्य, यश, सौभाग्य और ऐश्वर्य से परिपूर्ण रहे।

अङ्गस्पर्श मन्त्र

निम्नलिखित मन्त्रों का उच्चारण करते हुए बायीं हथेली में जल लेकर दाहिने हाथ की दो बीच की अंगुलियों-मध्यमा और अनामिका-से जल स्पर्श करके अपने अङ्गों को स्पर्श करें। पहले दायें भाग का और फिर बायें भाग का।

ओ३म् वाङ्गम् आस्येऽस्तु। मुख के दोनों ओर स्पर्श करें।

ओ३म् नसोर्मे प्राणोऽस्तु। नाक के दोनों ओर स्पर्श करें।

ओ३म् अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु। दोनों आँखों का स्पर्श करें।

ओ३म् कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु। दोनों कानों का स्पर्श करें।

ओ३म् बाह्वोर्मे बलमस्तु। दोनों भुजाओं का स्पर्श करें।

ओ३म् ऊर्वोर्म ओजोऽस्तु। दोनों जंघाओं का स्पर्श करें।

ओ३म् अरिष्टानि मेऽङ्गानि तनूस्तन्वा मे सह सन्तु। अपने शरीर पर जल के छीटें दें।

पारस्कर गृह्य सूत्र काण्ड १, कण्डिका ३, सूत्र २५

भावार्थ- हे सबके रक्षक प्रभो! आपकी कृपा से मेरे मुख में बोलने की शक्ति, नाक में प्राण-शक्ति, आँखों में देखने की शक्ति, कानों में सुनने की शक्ति, भुजाओं में बल और जंघाओं में पराक्रम सदा विद्यमान् रहे। मेरा शरीर और शरीर के सभी अङ्ग सदा निरोग रहें।

अग्न्याधान

यज्ञ कुण्ड में अग्नि स्थापित करने की विधि

अग्नि-ज्वालन मन्त्र

समिधा, कपूर अथवा रुई की घृत लगी बत्ती में से किसी एक को दीपक या दियासिलाई से निम्नलिखित मन्त्र बोलकर अग्नि प्रज्वलित करें।

ओ३म् भूर्भुव: स्व: ।।

गोभिल गृह्य सूत्र १.१.११, शतपथ ब्राह्मण ३.२.१.६

अग्नि- स्थापन मन्त्र

निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करके जलती हुई अग्नि को यज्ञ कुण्ड में समिधाओं के बीच में स्थापित करें।

ओ३म्। भूर्भुव: स्वर्द्योरिव भूम्ना पृथिवीव वरिम्णा।

तस्यास्ते पृथिवि देवयजनि पृष्ठेऽग्निमन्नादमन्नाद्यायादधे ।।

यजुर्वेद ३.५

भावार्थ- हे प्राण स्वरूप, दु:ख विनाशक, सुख स्वरूप प्रभो! आपकी कृपा से मैं इस देवों की यज्ञस्थली पृथिवी की पीठ पर (यज्ञ कुण्ड में) यज्ञ करने के लिए हवि खाने वाली अग्नि को स्थापित कर रहा हूँ। आप ऐसी कृपा करो कि इस अग्नि के द्वारा मैं अन्न आदि ऐश्वर्य को प्राप्त करके द्युलोक के समान विशाल और पृथिवी के समान महत्त्वशाली हो जाऊँ।

अग्नि प्रदीप्त करने का मन्त्र

निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करके वेदी में स्थापित अग्नि को घी, कपूर तथा पंखे से हवा करके प्रदीप्त करें–

ओ३म्। उद्बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि त्वमिष्टापूर्ते सš सृजेथामयं च।

अस्मिन्त्सधस्थे अध्युत्तरस्मिन् विश्वे देवा यजमानश्च सीदत ।।

यजुर्वेद १५.५४

भावार्थ- हे ईश्वर! आपकी कृपा से हमारे द्वारा स्थापित यह यज्ञ की अग्नि अच्छे प्रकार जलती रहे। इस अग्नि के उपयोग से हम आत्म-कल्याण और लोकोपकार के कार्यों को करते हुए उन्नति को प्राप्त करें। इसी उद्देश्य से यजमान और सब विद्वान् पुरुष यज्ञवेदी पर विराजमान हों।

समिद्-आधान के मन्त्र

पहले से ही तैयार की हुई आठ-आठ अङ्गुल की तीनों समिधाओं को घी में डुबो लें।
पहली समिधा निम्नलिखित मन्त्र बोलकर यज्ञकुण्ड में जलती हुई अग्नि पर रखें।

ओ३म्। अयन्त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्धस्व चेद्ध वर्धय चास्मान् प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेनान्नाद्येन समेधय स्वाहा ।। इदमग्नये जातवेदसे-इदं न मम ।।

आश्वालायन गृह्य सूत्र १.१०.१२

भावार्थ- यह यज्ञ में प्रज्वलित होने वाला अग्नि जैसे समिधा द्वारा प्रज्वलित होता है और बढ़ता है, वैसे ही हमारे द्वारा उपयोग में लाया हुआ, हमको सन्तान, पशु, ब्रह्मतेज, धन-धान्य और उपभोग करने के सामथ्र्य से बढ़ाये।  इस प्रकार की अग्नि को प्रज्वलित करने के लिए मैं यह समिधा रूप आहुति त्याग भावना से प्रदान कर रहा हूँ। यह मेरे लिए नहीं है।

दूसरी समिधा निम्नलिखित दो मन्त्रों का उच्चारण करके यज्ञकुण्ड में रखें।

ओ३म्। समिधाग्निं दुवस्यत घृतैर्बोधयतातिथिम्। आस्मिन् हव्या जुहोतन।। सुसमिद्धाय शोचिषे घृतं तीव्रं जुहोतन। अग्नये जातवेदसे स्वाहा ।। इदमग्नये जातवेदसे-इदं न मम ।।  यजुर्वेद ३.१-२

भावार्थ-

हे प्रभो! आपकी कृपा से मैं अतिथि के समान अग्नि को समिधा तथा रोग निवारण में तीक्ष्ण घी से अच्छे प्रकार प्रज्वलित करके, उसमें सुगन्धित, मधुर, पुष्टिकारक और रोग निवारक पदार्थों की आहुतियाँ प्रदान करता रहूँ। इसी कारण समिधा रूपी यह आहुति त्याग भावना से अग्नि को प्रज्वलित करने के लिए प्रदान कर रहा हूँ। यह मेरे लिए नहीं है।

तीसरी समिधा निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करके यज्ञकुण्ड में रखें।

ओ३म्। तन्त्वा समिद्भिरङ्गिरो घृतेन वर्धयामसि।

बृहच्छोचा यविष्ठ्य स्वाहा ।। इदमग्नयेऽङ्गिरसे -इदं न मम ।।   यजुर्वेद ३.३

भावार्थ- गतिमान्, प्रज्वलित, प्रकाशक, पदार्थों का भेदन करने में अति बलवान् अग्नि को हम समिधाओं और घी से अच्छे प्रकार बढ़ा रहे हैं। यह समिधा रूप आहुति गतिमान् अग्नि को प्रज्वलित करने के लिए त्याग भावना से प्रदान कर रहा हूँ। यह मेरे लिए नहीं है।

पञ्च घृताहुति- मन्त्र

निम्नलिखित मन्त्र का पांच बार उच्चारण करें और प्रत्येक बार घी की आहुति प्रदान करें।

ओ३म्। अयन्त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्धस्व चेद्ध वर्धय चास्मान् प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेनान्नाद्येन समेधय स्वाहा ।। इदमग्नये जातवेदसे-इदं न मम ।।

जल- सेचन मन्त्र

निम्नलिखित मन्त्रों का उच्चारण करते हुए दायीं अञ्जलि में जल लेकर यज्ञकुण्ड के चारों ओर क्रमश: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण दिशा में जल सेचन करें-

ओ३म् अदितेऽनुमन्यस्व ।। इस मन्त्र से पूर्व दिशा में।

ओ३म् अनुमतेऽनुमन्यस्व ।। इस मन्त्र से पश्चिम दिशा में।

ओ३म् सरस्वत्यनुमन्यस्व ।। इस मन्त्र से उत्तर दिशा में।

गोभिल गृह्य सूत्र प्र. १, ख. ३, सू. १-३; छान्दोग्य ब्राह्मण १.१

दिव्यो गन्धर्व: केतपू: केतं न: पुनातु वाचस्पतिर्वाचं न: स्वदतु ।।

इस मन्त्र से दक्षिण दिशा से प्रारम्भ करके वेदी के चारों ओर जल छिडक़ें।

आघाराव- आज्याहुति मन्त्र

आघाराव= तरड़ाना-धारा रूप से। आज्य= घी, अर्थात् यज्ञ में घी की धारा प्रवाह रूप से आहुति देना।

निम्नलिखित मन्त्र से यज्ञकुण्ड के उत्तर में जलती हुई अग्नि पर घी की आहुति दें।

ओ३म् अग्नये स्वाहा ।। इदमग्नये-इदं न मम ।।

निम्नलिखित मन्त्र से यज्ञकुण्ड के दक्षिण में अग्नि पर घी की आहुति दें।

ओ३म् सोमाय स्वाहा ।। इदं सोमाय-इदं न मम ।।

गोभिल गृह्य सूत्र १.८.२४, यजुर्वेद २२.२७

आज्यभागाहुति मन्त्र

निम्नलिखित मन्त्रों से घी की दो आहुतियाँ यज्ञकुण्ड के मध्य में प्रदान करें।

ओ३म् प्रजापतये स्वाहा ।। इदं प्रजापतये-इदं न मम ।। यजुर्वेद २२.३२

ओ३म् इन्द्राय स्वाहा ।। इदं इन्द्राय-इदं न मम ।। यजुर्वेद २२.२७

भावार्थ- मैं सच्चे हृदय से युक्त होकर परोपकार की भावना से यज्ञाग्नि पर उत्तर दिशा में ज्ञान स्वरूप ईश्वर के लिए, दक्षिण दिशा में शान्ति आदि गुणों वाले और मध्य में प्रजाओं के पालक और ऐश्वर्यशाली ईश्वर के लिए आहुति प्रदान कर रहा हूँ। ये आहुतियाँ इन सब गुणों से युक्त ईश्वर के लिए हैं। ये मेरे लिए नहीं है।

प्रात:कालीन आहुतियों के मन्त्र

प्रात:काल देवयज्ञ (अग्निहोत्र) करते समय निम्नलिखित मन्त्रों से घी तथा सामग्री की आहुतियाँ प्रदान करें।

ओ३म्। सूर्यो ज्योतिज्र्योति: सूर्य: स्वाहा ।।१।।

ओ३म्। सूर्यो वर्चो ज्योतिर्वर्च: स्वाहा ।।२।।

ओ३म्। ज्योति: सूर्य: सूर्यो ज्योति: स्वाहा ।।३।।

ओ३म्। सजूर्देवेन सवित्रा सजूरुषसेन्द्रवत्या।

जुषाण: सूर्यो वेतु स्वाहा ।।४।।             यजुर्वेद ३.९-१०

भावार्थ-

सबका रक्षक ईश्वर, चराचर संसार को बनाने वाला है। वह स्वयं प्रकाशस्वरूप है एवं सब लोक-लोकान्तरों तथा प्रकाश करने वाले लोकों का भी प्रकाशक है। सूर्य और उषा को वही प्रीति पूर्वक उत्पन्न करके प्रकाशित कर रहा है। वह ईश्वर हमें प्राप्त होकर सब प्रकार से सुखी करे। इसी कामना से यह आहुति प्रदान कर रहा हूँ। अथवा सूर्य किरणों की शुद्धि के लिए और ईश्वर की प्राप्ति के लिए यह आहुति प्रदान कर रहा हूँ।

सायंकालीन आहुतियों के मन्त्र

सायंकाल अग्निहोत्र करते समय निम्नलिखित मन्त्रों से घी तथा सामग्री की आहुतियाँ प्रदान करें। तीसरे मन्त्र से मौन रह कर आहुति प्रदान करें अर्थात् ‘ओ३म्’और ‘स्वाहा’ पद स्पष्ट बोलें तथा शेष मन्त्र का मन में विचार करके आहुति प्रदान करें।

ओ३म्। अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्नि: स्वाहा ।।१।।

ओ३म्। अग्निर्वर्चो ज्योतिर्वर्च: स्वाहा ।।२।।

ओ३म्। अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्नि: स्वाहा ।।३।।

ओ३म्। सजूर्देवेन सवित्रा सजूरात्र्येन्द्रवत्या।

जुषाणो अग्निर्वेतु स्वाहा ।।४।।       यजुर्वेद ३.९-१०

भावार्थ- ईश्वर ज्ञान स्वरूप, प्रकाश स्वरूप एवं तेज स्वरूप है। वही सब लोक-लोकान्तरों तथा प्रकाश करने वाले लोकों का भी प्रकाशक है। वह ईश्वर  हमें प्राप्त होकर सब प्रकार से सुखी करे। इसी कामना से यह आहुति प्रदान कर रहा हूँ। अथवा अग्नि को शुद्ध करने के लिए और ईश्वर की प्राप्ति के लिए यह आहुति प्रदान कर रहा हूँ।

प्रात:-सायं दोनों समय की आहुतियों के समान मन्त्र

निम्नलिखित मन्त्रों से दोनों समय घी और सामग्री की आहुतियाँ प्रदान करें-

ओ३म्। भूरग्नये प्राणाय स्वाहा। इदमग्नये प्राणाय-इदं न मम ।।१।।

ओ३म्। भुवर्वायवेऽपानाय स्वाहा। इदं वायवेऽपानाय-इदं न मम ।।२।।

ओ३म्। स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा। इदमादित्याय व्यानाय-इदं न मम ।।३।।

ओ३म्। भूर्भुव: स्वरग्निवाय्वादित्येभ्य: प्राणापानव्यानेभ्य: स्वाहा।

इदमग्निवाय्वादित्येभ्य: प्राणापानव्यानेभ्य:-इदं न मम ।।४।।

ओ३म्। आपो ज्योती रसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुव: स्वरों स्वाहा ।।५।।

तैत्तिरीय आरण्यक १०

भावार्थ- हे परमेश्वर! आप सर्वव्यापक, स्वयं प्रकाश स्वरूप और सबको प्रकाशित करने वाले, सबसे स्नेह रखने वाले, नाश रहित, सबसे महान्, प्राण स्वरूप, दु:खों का नाश करने वाले, सुख देने वाले और हम सबके रक्षक हो। इस यज्ञ के द्वारा ये सब पदार्थ आहुति के रूप में आपको समर्पित कर रहा हूँ।

ओ३म्। यां मेधां देवगणा: पितरश्चोपासते।

तया मामद्य मेधयाऽग्ने मेधाविनं कुरु स्वाहा ।।६।। यजुर्वेद ३२.१४

भावार्थ- हे ज्ञान स्वरूप प्रभो! दिव्य गुणों वाले सब विद्वान्, रक्षा करने वाले- ज्ञान, बल, धन, आयु से सम्पन्न सब पुरुष, जिस उत्तम बुद्धि को प्राप्त करना चाहते हैं, आप कृपा करके मुझे वह मेधा बुद्धि देकर बुद्धिमान् बना दो। इसी कामना से मैं यह आहुति प्रदान कर रहा हूँ।

ओ३म्। विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव।

यद् भद्रं तन्न आ सुव स्वाहा ।।७।।             यजुर्वेद ३०.३

भावार्थ- हे सम्पूर्ण संसार को उत्पन्न करने वाले परमेश्वर! आप हमारे सब दुर्गुण, दुव्र्यसन और दु:खों को दूर कर दीजिए और जो सुखदायक, कल्याणकारी, गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं; उन सबको हमें प्रदान कीजिए।

ओ३म्। अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्।

युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम स्वाहा ।।८।।

यजुर्वेद ४०.१६

भावार्थ-

हे ज्ञान स्वरूप ईश्वर! आप हमें ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए उत्तम मार्ग से ले चलो। आप सम्पूर्ण ज्ञान और कर्मों को जानने वाले हो। हे प्रभो! कृपा करके हमसे कुटिलता युक्त पाप कर्मों को दूर कर दीजिए। हम लोग आपकी बहुत अधिक नमस्कार पूर्वक स्तुति कर रहे हैं।

गायत्री मन्त्र से आहुतियाँ

निम्नलिखित मन्त्र से घी तथा सामग्री की तीन आहुतियाँ प्रदान करें।

ओ३म् भूर्भुव: स्व:। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो न: प्रचोदयात् ।। ऋग्वेद ३.६२.१०; यजुर्वेद ३६.३

पूर्णाहुति मन्त्र

निम्नलिखित मन्त्र का तीन बार उच्चारण करें और हर बार घी और सामग्री की आहुति प्रदान करें।

ओ३म् सर्वं वै पूर्णš स्वाहा।।

शतपथ ब्राह्मण ४.२.२.२, ५.२.२.१

ओ३म्= हे सबके रक्षक परमेश्वर, आपकी कृपा से। सर्वम्= यह सम्पूर्ण यज्ञ कर्म। पूर्णम्= पूरा हो गया है। स्वाहा= मैं यह पूर्णाहुति प्रदान कर रहा हूँ।

पूर्णाहुति के बाद की प्रार्थना

अग्निहोत्र (देवयज्ञ) की पूर्णाहुति के बाद घृत-पात्र में शुद्ध जल डालकर यज्ञ की अग्नि पर हल्का सा तपायें। उस जल को दोनों हथेलियों पर मसल कर यज्ञाग्नि पर हाथ तपाकर निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करते हुए मुख, नेत्र, ललाट आदि अङ्गों पर मालिश करें।

ओ३म्। तेजोऽसि तेजो मयि धेहि, ओ३म्। वीर्यमसि वीर्यं मयि धेहि,

ओ३म्। बलमसि बलं मयि धेहि, ओ३म्। ओजोऽस्योजो मयि धेहि,

ओ३म्। मन्युरसि मन्युं मयि धेहि, ओ३म्। सहोऽसि सहो मयि धेहि ।।

यजुर्वेद १९.९

हे प्रभो! आप तेज स्वरूप हो, मुझे तेजस्वी बनाओ।

हे प्रभो! आप शक्तिशाली हो, मुझे शक्तिशाली बनाओ।

हे प्रभो! आप बलवान् हो, मुझे बलवान् बनाओ।

हे प्रभो! आप ओजस्वी हो, मुझे ओजस्वी बनाओ।

हे प्रभो! आप दीप्तिमान् हो, मुझे दीप्तिमान् बनाओ।

हे प्रभो! आप सहनशील हो, मुझे सहनशील बनाओ।

ओ३म्। असतो मा सद् गमय।

तमसो मा ज्योतिर्गमय।

मृत्योर्मा अमृतं गमय ।।

शतपथ ब्राह्मण १४.१.१.३०

अर्थ- हे प्रभो! हमें असत्य से हटाकर सत्य के मार्ग पर चलाओ। अज्ञान रूपी अन्धकार से हटाकर ज्ञान के प्रकाश में ले जाओ और मृत्यु से मुक्त करके अमर बना दो।

विश्व कल्याण की प्रार्थना

सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे सन्तु निरामया:।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दु:खभाग् भवेत् ।।

हे ईश! सब सुखी हों, कोई न हो दु:खारी।

सब हों निरोग भगवन्, धन धान्य के भण्डारी ।।१।।

सब भद्र भाव देखें, सन्मार्ग के पथिक हों।

दुखिया न कोई होवे, सृष्टि में प्राणधारी ।।२।।

यज्ञ प्रार्थना

यज्ञ रूप प्रभो! हमारे भाव उज्ज्वल कीजिए।

छोड़ देवें छल कपट को मानसिक बल दीजिए ।।१।।

वेद की बोलें ऋचायें सत्य को धारण करें।

हर्ष में हों मग्न सारे शोक सागर से तरें ।।२।।

अश्वमेधादिक रचायें यज्ञ पर उपकार को।

धर्म मर्यादा चलाकर लाभ दें संसार को ।।३।।

नित्य श्रद्धा भक्ति से यज्ञादि हम करते रहें।

रोग पीडि़त विश्व के सन्ताप सब हरते रहें ।।४।।

भावना मिट जाये मन से पाप अत्याचार की।

कामनायें पूर्ण होवें यज्ञ से नर-नार की ।।५।।

लाभकारी हो हवन हर प्राणधारी के लिए।

वायु जल सर्वत्र हों शुभ गन्ध को धारण किये ।।६।।

स्वार्थ भाव मिटे हमारा प्रेम पथ विस्तार हो।

स्वार्थ भाव मिटे हमारा प्रेम पथ विस्तार हो।

हाथ जोड़ झुकायें मस्तक वन्दना हम कर रहे।

‘नाथ’ करुणारूप! करुणा आपकी सब पर रहे ।।८।।

(ले.-पं. लोकनाथ तर्कवाचस्पति)