व्याहृति- आहुति मन्त्र
निम्नलिखित मन्त्रों से घी की आहुतियाँ प्रदान करें।
ओ३म् भूरग्नये स्वाहा ।। इदमग्नये-इदं न मम ।।१।।
ओ३म् भुवर्वायवे स्वाहा ।। इदं वायवे-इदं न मम ।।२।।
ओ३म् स्वरादित्याय स्वाहा ।। इदमादित्याय-इदं न मम ।।३।।
ओ३म् भूर्भुव: स्वरग्निवाय्वादित्येभ्य: स्वाहा ।। इदमग्निवाय्वादित्येभ्य-इदं न मम ।। ४।।
-गोभिल गृह्य. १.८.१४
भावार्थ- हे ईश्वर! मैं ये घी की आहुतियाँ परोपकार की भावना से, सच्चे हृदय से युक्त होकर पृथिवी, अन्तरिक्ष और द्यु स्थानीय, अग्नि, वायु और सूर्य किरणों की शुद्धि के लिए प्रदान कर रहा हूँ। ये मेरे लिए नहीं हैं।
स्विष्टकृत्- आहुति मन्त्र
निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करके घी अथवा भात= पानी में पकाये हुए नमक रहित चावल की एक आहुति प्रदान करें।
ओ३म्। यदस्य कर्मणोऽत्यरीरिचं यद्वा न्यूनमिहाकरम्। अग्निष्टत् स्विष्टकृद्विद्यात् सर्वं स्विष्टं सुहुतं करोतु मे। अग्नये स्विष्टकृते सुहुतहुते सर्वप्रायश्चित्ताहुतीनां कामानां समर्द्धयित्रे सर्वान्न: कामान्त्समर्द्धय स्वाहा । इदमग्नये स्विष्टकृते-इदं न मम ।।
-आश्व. गृ. १.१०.२२
भावार्थ- हे ज्ञान स्वरूप सर्वज्ञ परमेश्वर! आज मैंने यह शुभ कर्म यज्ञ किया है। इसमें अज्ञानतावश यदि कोई विधि अधिक हो गयी है अथवा कोई कमी रह गयी है, तो आप उसको पूर्ण किया हुआ कर्म मानकर सफल बनाने की कृपा करो और हमारी सभी कामनाओं को पूर्ण करो। इसलिए मैं ज्ञान स्वरूप, सर्वज्ञ, यज्ञ कर्म को पूर्ण करने वाले, अच्छे प्रकार जिसके लिए आहुतियाँ दी गयी हैं और सब कामनाओं को पूर्ण करने वाले हे प्रभो! आपके लिए यह प्रायश्चित्त आहुति प्रदान कर रहा हूँ।
प्राजापत्य आहुति मन्त्र
निम्नलिखित मन्त्र से मौन रहकर अर्थ विचार करते हुए एक आहुति घी की प्रदान करें।
ओ३म् प्रजापतये स्वाहा ।। इदं प्रजापतये-इदं न मम ।।
-पारस्कर गृह्य सूत्र १.११.३
भावार्थ- हे समस्त प्रजा के पालक ईश्वर! आज मैंने जो यह अग्निहोत्र यज्ञ किया है, वह सब आपको समर्पण कर रहा हूँ।
पवमान आहुतय:
निम्नलिखित चार मन्त्रों से आज्य= घी की आहुतियाँ प्रदान करें।
ओ३म् भूर्भुव: स्व:। अग्न आयूंषि पवस आ सुवोर्जमिषं च न:।
आरे बाधस्व दुच्छुनां स्वाहा ।। इदमग्नये पवमानाय-इदं न मम ।।१।।
भावार्थ – हे सबके रक्षक, सबके प्राणाधार, दु:खविनाशक, सुख स्वरूप और ज्ञान स्वरूप प्रभो! आप कृपा करके हमारे दुर्गुणों और कुविचारों को दूर करके हमारे जीवन को पवित्र कीजिए। हमें सब प्रकार का बल, पराक्रम और ऐश्वर्य देकर सुखी कीजिए। इसी कामना से मैं यह आहुति आपके लिए प्रदान कर रहा र्हूँ । यह मेरे लिए नहीं है।
ओ३म् भूर्भुव: स्व:। अग्निर्ऋषि: पवमान: पाञ्चजन्य: पुरोहित:।
तमीमहे महागयं स्वाहा ।। इदमग्नये पवमानाय-इदं न मम ।।२।।
भावार्थ- हे ईश्वर! आप ज्ञान स्वरूप, सबको देखने वाले और जानने वाले हो। आपकी सत्ता सृष्टि रचना के पहले से ही है। आप सबके हितकारी, सबको पवित्र करने वाले और सबके पूजनीय हो। हे प्रभो! इन गुणों से युक्त आपको हम प्राप्त करना चाहते हैं। इसी कामना से मैं यह आहुति आपके लिए प्रदान कर रहा हूँ। यह मेरे लिए नहीं है।
ओ३म् भूर्भुव: स्व:। अग्ने पवस्व स्वपा अस्मे वर्च: सुवीर्यम्।
दधद्रयिं मयि पोषं स्वाहा ।। इदमग्नये पवमानाय-इदं न मम ।।३।।
-ऋग्वेद ९.६६.२१
भावार्थ- हे सबके रक्षक, प्राण स्वरूप, दु:ख विनाशक, सुख स्वरूप और ज्ञान स्वरूप प्रभो! आप हम सब उत्तम कर्म करने वालों को पवित्र करके हमें तेज, पराक्रम, धन और समग्र ऐश्वर्य देकर पुष्ट कीजिए। इसी कामना से मैं यह आहुति आपके लिए प्रदान कर रहा हूँ। यह मेरे लिए नहीं है।
ओ३म् भूर्भुव: स्व:। प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परिता बभूव।
यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणां स्वाहा ।। इदं प्रजापतये-इदं न मम ।।४।।
-ऋग्वेद १०.१२१.१०
भावार्थ- हे सम्पूर्ण प्रजा के पालक ईश्वर! इन समस्त लोकों का आपसे भिन्न कोई दूसरा पालन करने वाला स्वामी नहीं है। आप ही सबके आधार हो। हे ईश्वर! हम जिस-जिस कामना से युक्त होकर आपकी उपासना करें, आप हमारी वह कामना पूर्ण करो, जिससे हम धन-ऐश्वर्यों के स्वामी हो जायें।
अष्टाज्याहुतय:
निम्नलिखित आठ मन्त्रों से आज्य= घी की आहुतियाँ प्रदान करें।
ओ३म्। त्वं नो अग्ने वरुणस्य विद्वान् देवस्य हेळोऽव यासिसीष्ठा:।
यजिष्ठो वह्नितम: शोशुचानो विश्वा द्वेषांसि प्रमुमुग्ध्यस्मत् स्वाहा ।।
इदमग्नीवरुणाभ्याम्-इदं न मम ।।१।।
ऋग्वेद ४.१.४
भावार्थ- हे ज्ञान स्वरूप प्रभो! आप अपने ज्ञान से दिव्य गुण वाले श्रेष्ठ पुरुषों को भी जानते हो। आपकी कृपा से हम किसी धार्मिक श्रेष्ठ पुरुष का अपमान न करें। आप ऐसी कृपा करो जिससे मैं सर्वश्रेष्ठ और यशस्वी हो जाऊँ। हमारे मन में किसी के प्रति द्वेष भावना न रहे। इसी कामना से मैं यह आहुति आपके लिए प्रदान कर रहा हूँ। यह मेरे लिए नहीं है।
ओ३म्। स त्वं नो अग्नेऽवमो भवोती नेदिष्ठो अस्या उषसो व्युष्टौ।
अव यक्ष्व नो वरुणं रराणो वीहि मृळीकं सुहवो न एधि स्वाहा॥
इदमग्नीवरुणाभ्याम्- इदं न मम ।। २।।
ऋग्वेद ४.१.५
भावार्थ- हे ज्ञान स्वरूप प्रभो! इस उषा काल के विशेष प्रकाश में आप हमारे समीप होकर हमारी रक्षा करो। हम सरलता से आपका ध्यान करके आपके स्वरूप का अनुभव करते रहें। आप हमें श्रेष्ठ विद्वानों का उपदेश और इच्छित पदार्थ देकर सुख प्रदान करो। इसी कामना से मैं यह आहुति आपके लिए प्रदान कर रहा हूँ। यह मेरे लिए नहीं है।
ओ३म्। इमं मे वरुण श्रुधी हवमद्या च मृळय।
त्वामवस्युराचके स्वाहा ।।
इदं वरुणाय-इदं न मम ।।३।।
ऋ ग्वेद १.२५.१९
भावार्थ- हे वरणीय प्रभो! मैं भव-बन्धनों से पीडि़त होकर आपको पुकार रहा हूँ। आप इसी समय मेरी रक्षा करके मुझे सुखी करो। इसी कामना से मैं यह आहुति आपके लिए प्रदान कर रहा हूँ। यह मेरे लिए नहीं है।
ओ३म्। तत्त्वा यामि ब्रह्मणा वन्दमानस्तदाशास्ते यजमानो हविर्भि:।
अहेळमानो वरुणेह बोध्युरुशंस मा न आयु: प्र मोषी: स्वाहा ।।
इदं वरुणाय-इदं न मम ।।४।।
ऋग्वेद १.२४.११
भावार्थ- हे वरण करने योग्य प्रभो! यज्ञ करने वाला मैं स्तुति करता हुआ आपकी शरण में आ रहा हूँ। आप मेरी अवहेलना न करना। हे सभी के पूजनीय प्रभो! मुझे ज्ञान प्रदान करके अकाल मृत्यु से बचाओ, जिससे मैं पूर्ण आयु प्राप्त करके शुभ कर्मों द्वारा जीवन को सार्थक बनाऊँ। इसी कामना से मैं यह आहुति आपके लिए प्रदान कर रहा हूँ। यह मेरे लिए नहीं है।
ओ३म्। ये ते शतं वरुण ये सहस्रं यज्ञिया: पाशा वितता महान्त:।
तेभिर्नो अद्य सवितोत विष्णुर्विश्वे मुञ्चन्तु मरुत: स्वर्का: स्वाहा।।
इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरुद्भ्य: स्वर्केभ्य: इदं न मम ।।५।।
कात्यायन श्रौत सूत्र २५.१.११
भावार्थ- हे श्रेष्ठतम वरणीय प्रभो! आपके द्वारा निर्मित इस सृष्टि में सैंकड़ों, सहस्रों अर्थात् असंख्य नियम काम कर रहे हैं। हे सर्वव्यापक और सबके उत्पादक प्रभो! आप तथा सभी तेजस्वी विद्वान् और ऋत्विक् (पुरोहित) इन सृष्टि नियमों का ज्ञान करा कर तथा इन नियमों की सहायता से मुझे सब प्रकार के दु:खों से मुक्त करें। इसी कामना से मैं यह आहुति आपके लिए प्रदान कर रहा हूँ। आपको समर्पित यह आहुति सभी विद्वानों, पुरोहितों, मित्रों और तेजस्वी जनों को अनुकूल बनाने के लिए है। यह मेरे लिए नहीं है।
ओ३म्। अयाश्चाग्नेऽस्यनभिशस्तिपाश्च सत्यमित्त्वमयासि।
अया नो यज्ञं वहास्यया नो धेहि भेषज स्वाहा ।।
इदमग्नये अयसे-इदं न मम ।।६।।
कात्यायन श्रौत सूत्र २५.१.११
भावार्थ- हे ज्ञान स्वरूप प्रभो! यथार्थ रूप से आप ही सर्वत्र व्यापक हो; कोई दूसरा नहीं। आप ही हमारे यज्ञ आदि शुभ कर्मों को सफल बनाने वाले और निन्दित कर्मों से हमारी रक्षा करने वाले हो। हे प्रभो! आप हमें रोग निवारक शक्ति प्रदान करके हमारा कल्याण करो। इसी कामना से मैं यह आहुति आपके लिए प्रदान कर रहा हूँ। यह मेरे लिए नहीं है।
ओ३म्। उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यमं श्रथाय।
अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम स्वाहा।।
इदं वरुणाय आदित्याय अदितये च-इदं न मम ।।७।।
ऋग्वेद १.२४.१५
भावार्थ- हे वरणीय अविनाशी प्रभो! आप हमारे उत्तम, मध्यम और अधम प्रकार के सत्त्व, रजस और तमोगुण वाले सांसारिक बन्धनों को शिथिल करके नष्ट कर दो, जिससे हम पाप रहित और शुद्ध विचारों वाले होकर आपकी आज्ञा का सदा पालन करते हुए, मोक्ष सुख को प्राप्त करें। इसी कामना से मैं यह आहुति आपके लिए प्रदान कर रहा हूँ। यह मेरे लिए नहीं है।
ओ३म्। भवतन्न: समनसौ सचेतसावरेपसौ।
मा यज्ञ हि सिष्टं मा यज्ञपतिं जातवेदसौ शिवौ भवतमद्य न: स्वाहा ।।
इदं जातवेदोभ्याम्-इदं न मम ।।८।।
यजुर्वेद ५.३
भावार्थ- हे प्रभो! आपकी कृपा से प्रबुद्ध ज्ञानी यजमान और पुरोहित हमारे लिए समान मन वाले (सहृदय), समान चिन्तन शक्ति वाले और पाप वृत्ति से रहित होवें। ये दोनों उपेक्षा करके हमारे शुभ कर्मों को और शुभ कर्म करने वाले मुझ को नष्ट न करें। ये अपने ज्ञान से आज ही हमारा कल्याण करें। इसी कामना से मैं यह आहुति आपके लिए प्रदान कर रहा हूँ। आपको समर्पित यह आहुति उन दोनों प्रबुद्ध ज्ञानियों को अनुकूल बनाने के लिए है। यह मेरे लिए नहीं है।