अथान्त्येष्टिकर्मविधिं वक्ष्यामः
‘अन्त्येष्टि’ कर्म उस को कहते हैं कि जो शरीर के अन्त का संस्कार है, जिस के आगे उस शरीर के लिए कोई भी अन्य संस्कार नहीं है। इसी को नरमेध, पुरुषमेध, नरयाग, पुरुषयाग भी कहते हैं ।
भस्मन्तिः शरीरम् । -यजुः अ० ४० मं० १५
अर्थ – इस शरीर का संस्कार ( भस्मान्तम्) अर्थात् भस्म करने पर्यन्त है ||१||
निषेकादिश्मशानान्तो मन्त्रैर्यस्योदितो विधिः॥ – मनु०
अर्थशरीर का आरम्भ ऋतुदान और अन्त में श्मशान अर्थात् मृतक कर्म है
(प्रश्न) गरुडपुराण आदि में दशगात्र एकादशाह द्वादशाह, सपिण्डी कर्म, मासिक, वार्षिक, गयाश्राद्ध आदि क्रिया लिखी हैं, क्या ये सब असत्य हैं ?
(उत्तर) हाँ, अवश्य मिथ्या हैं, क्योंकि वेदों में इन कर्मों का विधान नहीं है । इसलिए अकर्त्तव्य हैं और मृतक जीव का सम्बन्ध पूर्व सम्बन्धियों के साथ कुछ भी नहीं रहता, और न इन जीते हुए सम्बन्धियों का । वह जीव अपने कर्म के अनुसार जन्म पाता है ।
(प्रश्न) मरण के पीछे जीव कहाँ जाता है ?
(उत्तर) यमालय को ।
(प्रश्न) यमालय किस को कहते हैं ?
(उत्तर) वाय्वालय को ।
(प्रश्न) वाय्वालय किस को कहते हैं ?
(उत्तर) अन्तरिक्ष को, जो कि यह पोल है ।
(प्रश्न) क्या गरुडपुराण आदि में यमलोक लिखा है वह झूठा है ?
(उत्तर) अवश्य मिथ्या है।
(प्रश्न) पुनः संसार क्यों मानता है ?
(उत्तर) वेद के अज्ञान और उपदेश के न होने से। जो यम की कथा लिख रक्खी है, वह सब मिथ्या है, क्योंकि ‘यम’ इतने पदार्थों का नाम है-
षळिद् य॒मा ऋष॑यो देवजा इति ॥ १ ॥ ऋ० म० १० सू० १४ । मं० १३॥
शकेम॑ वाजिनो यम॑म्॥२॥
यमाय॑ जुहुता ह॒वि:। यम ह॑ यज्ञो ग॑च्छत्यग्निदूृतो अर॑कृत: ॥३॥
य॒मः सु॒यमा॑नो॒ विष्णु॑ः सम्भ्रयमा॑णो वा॒युः पू॒यमा॑नः ॥ ४ ॥ -यजु० अ० ८। मं० ५७।।
वा॒जिनं॒ यम॑म् ॥५॥ ऋ० म० ८ सू० २४ । मं० २२ ।।
य॒मं मा॑त॒रिश्वा॑न॒माहुः ॥६॥ ऋ० म० १ सू० १६४ | मं० ४६ ।।
यहां ऋतुओं का यम नाम ॥ १ ॥
यहां परमेश्वर का नाम ॥२॥
यहां अग्नि का नाम ॥३॥
यहां वायु, विद्युत्, सूर्य के यम नाम हैं ||४||
यहां भी वेगवाला होने से वायु का नाम यम है ॥५॥
यहां परमेश्वर का नाम यम है ||६||
इत्यादि पदार्थों का नाम ‘यम’ है। इसलिए पुराण आदि की सब कल्पना झूठी है ।
विधि
संस्थिते भूमिभागं खानयेद् दक्षिणपूर्वस्यां दिशि दक्षिणापरस्यां वा ॥ १ ॥
दक्षिणाप्रवणं प्राग्दक्षिणाप्रवणं वा प्रत्यग्दक्षिणाप्रवण मित्येके ॥२॥
यावानुबाहुकः पुरुषस्तावदायामम् ॥३॥
व्याममात्रं तिर्यक् ॥४॥
वितस्त्यर्वाक् ॥५॥
केशश्मश्रुलोमनखानीत्युक्तं पुरस्तात् ॥६॥
द्विगुल्फं बर्हिराज्यं च ॥७॥
दधन्यत्र सर्पिरानयन्त्येतत् पित्र्यं पृषदाज्यम् ॥८॥
अथैतां दिशमग्नीन् नयन्ति यज्ञपात्राणि च ॥ ९ ॥
*अर्थ– जब कोई मर जावे तब यदि पुरुष हो तो पुरुष और स्त्री हो तो स्त्रियां उस को स्नान करावें । चन्दनादि सुगन्धलेपन और नवीन वस्त्र धारण करावें । जितना उस के शरीर का भार हो उतना घृत यदि अधिक सामर्थ्य हो तो अधिक लेवें और जो महादरिद्र भिक्षुक हो कि जिस के पास कुछ भी नहीं है, उसे कोई श्रीमान् वा पञ्च बनके आध मन से कम घी न देवें, और श्रीमान् लोग शरीर के बराबर तोलके चन्दन, सेर भर घी में एक रत्ती कस्तूरी, एक मासा केसर, एक-एक मन घी के साथ सेर-सेर भर अगर- तगर और घृत में चन्दन का चूरा भी यथाशक्ति डाल कपूर, पलाश आदि के पूर्ण काष्ठ, शरीर के भार से दूनी सामग्री श्मशान में पहुंचायें। तत्पश्चात् मृतक को वहां श्मशान में ले जायें।*
यदि प्राचीन वेदी बनी हुई न हो तो नवीन वेदी भूमि में खोदे । वह श्मशान का स्थान बस्ती से दक्षिण तथा आग्नेय अथवा नैर्ऋत्य कोण में हो, वहां भूमि को खोदे। मृतक के पग दक्षिण, नैर्ऋत्य अथवा आग्नेय कोण में रहें। शिर उत्तर ईशान वा वायव्य कोण में रहे ॥ १ ॥
मृतक के पग की ओर वेदी के तले में नीचा और शिर की ओर थोड़ा ऊंचा रहे ||२॥
उस वेदी का परिमाण पुरुष खड़ा होकर ऊपर को हाथ उठावे उतनी लम्बी और दोनों हाथों को लम्बे उत्तर दक्षिण पार्श्व में करने से जितना परिमाण हो, अर्थात् मृतक के साढ़े तीन हाथ अथवा तीन हाथ ऊपर से चौड़ी होवे, और छाती के बराबर गहरी होवे || ३ ||
और नीचे आध हाथ अर्थात् एक बीता भर रहे ||४||
उस वेदी में थोड़ा-थोड़ा जल छिटकावे । यदि गोमय उपस्थित हो तो लेपन भी करदे। उस में नीचे से आधी वेदी तक लकड़ियाँ चिने, जैसे कि भित्ती में ईंटे चिनी जाती हैं, अर्थात् बराबर जमाकर लकड़ियाँ धरे । लकड़ियों के बीच में थोड़ा-थोड़ा कपूर थोड़ी-थोड़ी दूर पर रक्खे। उस के ऊपर मध्य में मृतक को रक्खे, अर्थात् चारों ओर वेदी बराबर खाली रहे। और पश्चात् चारों ओर और ऊपर चन्दन तथा पलाश आदि के काष्ठ बराबर चिने । वेदी से ऊपर एक बीता भर लकड़ियाँ चिने ।
जब तक यह क्रिया होवे, तब तक अलग चूल्हा बना अग्नि जला घी तपा और छानकर पात्रों में रक्खे। उसमें कस्तूरी आदि सब पदार्थ मिलावे । लम्बी-लम्बी लकड़ियों में चार चमसों को, चाहे वे लकड़ी के हों वा चांदी सोने के अथवा लोहे के हों, जिस चमसा में एक छटाकभर से अधिक और आधी छटांक भर से न्यून घृत न आवे, खूब दृढ़ बन्धनों से डण्डों के साथ बांधे। पश्चात् घृत का दीपक करके कपूर में लगाकर शिर से आरम्भ कर पादपर्यन्त मध्य-मध्य में अग्नि-प्रवेश करावे ।
अग्नि प्रवेश कराके-
ओमग्नये स्वाहा ॥१॥
ओं सोमाय स्वाहा ॥२॥
ओं लोकाय स्वाहा ॥३॥
ओमनुमतये स्वाहा ॥४॥
ओं स्वर्गाय लोकाय स्वाहा ॥५॥
इन ५ पांच मन्त्रों से आहुतियां देके अग्नि को प्रदीप्त होने देवे। तत्पश्चात् ४ चार मनुष्य पृथक् पृथक् खड़े रहकर वेदों के मन्त्रों से आहुति देते जायें जहां ‘स्वाहा’ आवे वहां आहुति छोड़ देवें ।
अथ वेदमन्त्राः
सूर्य॒ चक्षु॑र्गच्छतु॒ वात॑मा॒त्मा द्यां च॑ गच्छ पृथि॒वीं च॒ धर्म॑णा । अ॒पो वा॑ गच्छ॒ यदि॒ तत्र॑ ते हि॒तमोष॑धीषु॒ प्रति॑ तिष्ठा शरी॑र॒ स्वाहा॑ ॥ १ ॥
अ॒जो भा॒गस्तप॑सा॒ तं त॑पस्व॒ तं ते॑ शो॒चिस्त॑पतु॒ तं ते॑ अ॒र्चिः । यास्ते॑ शि॒वास्त॒न्वो॑ जातवेद॒स्ताभि॑र्वहैनं सु॒कृता॑मु॒ लो॒कं स्वाहा॑ ॥२॥
अव॑सृज॒ पुन॑रग्ने पि॒तृभ्यो॒ यस्त॒ आहु॑त॒श्चर॑ति स्व॒धाभि॑ः । आयु॒र्वसा॑न॒ उप॑वेतु॒ शेषि॒ सं ग॑च्छतां त॒न्वा॑ जातवेद॒ स्वाहा॑ ॥३॥
अ॒ग्नेर्व॑मे॒ परि॒ गोभि॑र्व्ययस्व॒ संप्रोर्णुष्व॒ पीव॑सा॒ मेद॑सा च । नेत्त्वा॑ कृ॒ष्णुर्हर॑सा॒ जर्हषाणो द॒धृग्व॑िध॒क्ष्यन् प॑र्य॒ङ्ख्या॑ते॒ स्वाहा॑ ॥४॥
यं त्वम॑ग्ने स॒मद॑ह॒स्तमु॒ निर्वा॑पया॒ पुन॑ः । कियाम्ब्वत्रं रोहतु पाकदूर्वा व्य॑कशा॒ स्वाहा॑ ॥५॥
परेयिवांस॑ प्र॒वतो॑ म॒हीरनु॑ ब॒हुभ्यः॒ पन्था॑मनुपस्पशा॒नम् । वैव॒स्व॒तं स॒ङ्गम॑नं॒ जना॑नां य॒मं राजा॑नं ह॒विषा॑ दु॒वस्य॒ स्वाहा॑ ॥६॥
य॒मो नो॑ गा॒तुं प्र॑थ॒मो वि॑िवेद॒ नैषा गव्यू॑ति॒रप॑भर्दे॒वा उ॑ । यत्रा॑ नः॒ पूर्वे॑ पि॒तरः॑ परि॒युरेना ज॑ज्ञा॒नाः प॒थ्या॒ अनु॒ स्वा स्वाहा॑ ॥७॥
मात॑ली क॒व्यैर्य॒मो अङ्गरोभिर्बृह॒स्पति॒र्ऋक्व॑भिर्वावृधा॒नः । याँश्च॑ दे॒वावा॑व॒धुर्ये च॑ दे॒वान्त्स्वाहा॑हा॒न्ये स्व॒धया॒न्ये मंदन्ति॒ि स्वाहा॑ ॥८॥
इ॒मं य॑म प्रस्त॒रमा हि सीदाङ्गरोभिः पि॒तृभिः॑ संविदा॒नः । आ त्वा॒ मन्त्राः कविश॒स्ता व॑हन्त्वे॒ना रा॑जन्ह॒विषा॑ मादयस्व स्वाहा॑ ॥९॥
अङ्गरोभि॒िरा ग॑हि य॒ज्ञिये॑भि॒र्यमं वैरू॒पैरि॒ह मा॑दयस्व । विव॑स्वन्त॑ हुवे॒ यः पि॒ता तेऽस्मिन्य॒ज्ञे ब॒र्हिष्या नि॒षद्य॒ स्वाहा॑ ॥१०॥
प्रेहि॒ प्रेहि॑ प॒थिभिः॑ि पू॒र्व्येभि॒र्यत्रा॑ नः॒ पूर्वे॑ पि॒तरः॑ पर॒युः । उ॒भा राजा॑ना स्व॒धया॒ मद॑न्ता य॒मं प॑श्यासि॒ वरु॑णं च दे॒वं स्वाहा॑ ॥११॥
सं ग॑च्छस्व पि॒तृभिः॒ सं य॒मेने॑ष्टापू॒र्तेन॑ पर॒मे व्यो॑मन् । हि॒त्वाया॑व॒द्यं पुन॒रस्त॒मेह सं ग॑च्छस्व त॒न्वा॑ सु॒वः स्वाहा॑ ॥१२॥
अपे॑त॒ वी॑त॒ वि च॑ सर्व॒तापो॒ ऽस्मा ए॒तं पि॒तरो॑ लो॒कम॑क्रन् । अहो॑भिर॒द्भिर॒क्तुभि॒र्व्यक्तं य॒मो द॑दात्यव॒सान॑मस्मै॒ स्वाहा॑ ॥१३॥
य॒माय॒ सोमं सुनुत य॒माय॑ जुहुता ह॒विः । य॒मंह॑ य॒ज्ञो ग॑च्छत्य॒ग्निव॑तो॒ अर॑कृत॒ स्वाहा॑ ॥१४॥
य॒माय॑ घृ॒तव॑द्ध॒विर्जु॒होत॒ प्रच॑ तिष्ठत । सं नो॑ दे॒वेष्वा य॑मद् दी॒र्घमायुः प्र जा॑वसे॒ स्वाहा॑ ॥१५॥
य॒माय॒ मधु॑मत्तम॒ राज्ञे ह॒व्यं जुहोतन । इ॒दं नम॒ ऋषि॑भ्यः पूर्व॒जेभ्यः॒ पूर्वे॑भ्यः पथि॒कृद्भ्यः॒ स्वाहा॑ ॥१६॥
कृ॒ष्णः श्वे॒तो॑ ऽरु॒षो यामो॑ अस्य ब्र॒ध्न ॠज्र उ॒त शोणो॒ यश॑स्वान् । हिर॑ण्य॒रूप॒ जन॑ता जजान॒ स्वाहा॑ ॥१७॥
इन ऋग्वेद के मन्त्रों से चारों जने सत्रह सत्रह आज्याहुति देकर, निम्नलिखित मन्त्रों से उसी प्रकार आहुति देवें-
प्रा॒णेभ्य॒ः साधि॑पतिकेभ्यः॒ स्वाहा॑ ॥ १ ॥
पृथि॒व्यै स्वाहा॑ ॥२॥
अ॒ग्नये॒ स्वाहा॑ ॥३॥
अ॒न्तरि॑क्षाय॒ स्वाहा॑ ॥४॥
वा॒यवे॒ स्वाहा॑ ॥५॥
दि॒वे स्वाहा॑ ॥६॥
सूर्याय॒ स्वाहा॑ ॥७॥
दि॒ग्भ्यः स्वाहा॑ ॥८॥
च॒न्द्राय॒ स्वाहा॑ ॥९॥
नक्ष॑त्रेभ्यः॒ स्वाहा॑ ॥१०॥
अ॒द्भ्यः स्वाहा॑ ॥११॥
वरु॑णाय॒ स्वाहा॑ ॥१२॥
नाभ्यै स्वाहा॑ ॥१३॥
पु॒ताय॒ स्वाहा॑ ॥१४॥
वा॒चे स्वाहा॑ ॥१५॥
प्रा॒णाय॒ स्वाहा॑ ॥१६॥
प्रा॒णाय॒ स्वाहा॑ ॥१७॥
चक्षु॑षे॒ स्वाहा॑ ॥१८॥
चक्षु॑षे॒ स्वाहा॑ ॥१९॥
श्रोत्रा॑य॒ स्वाहा॑ ॥२०॥
श्रोत्रा॑य॒ स्वाहा॑ ॥२१॥
लोम॑भ्यः॒ स्वाहा॑ ॥२२॥
लोम॑भ्यः॒ स्वाहा॑ ॥२३॥
त्वचे स्वाहा॑ ॥२४॥
त्वचे स्वाहा॑ ॥२५॥
लोहि॑ताय॒ स्वाहा॑ ॥२६॥
लोहि॑ताय॒ स्वाहा॑ ॥२७॥
मेभ्यः॒ स्वाहा॑ ॥२८॥
मेदा॑भ्यः॒ स्वाहा॑ ॥२९॥
मा॒सेभ्यः॒ स्वाहा॑ ॥३०॥
मा॒सेभ्यः॒ स्वाहा॑ ॥३१॥
स्नाव॑भ्यः॒ स्वाहा॑ ॥३२॥
स्नाव॑भ्यः॒ स्वाहा॑ ॥३३॥
अ॒स्थभ्यः॒ स्वाहा॑ ॥३४॥
अ॒स्थभ्यः॒ स्वाहा॑ ॥३५॥
म॒ज्जभ्यः॒ स्वाहा॑ ॥३६॥
रेतसे स्वाहा ॥३८॥
म॒ज्जभ्यः॒ स्वाहा॑ ॥३७॥
पा॒यवे॒ स्वाहा॑ ॥३९॥
आ॒या॒साय॒ स्वाहा॑ ॥४०॥
प्रा॒या॒साय॒ स्वाहा॑ ॥४१॥
ं॒या॒साय॒ स्वाहा॑ ॥४२॥
वि॒िया॒साय॒ स्वाहा॑ ॥४३॥
उ॒द्य॒साय॒ स्वाहा॑ ॥४४॥
शुचे स्वाहा ॥४५॥
शोचते॒ स्वाहा॑ ॥४६॥
शोच॑मानाय॒ स्वाहा॑ ॥४७॥
शोका॑य॒ स्वाहा॑ ॥४८॥
तप॑से॒ स्वाहा॑ ॥४९॥
तप्यते॒ स्वाहा॑ ॥५०॥
तय॑मानाय॒ स्वाहा॑ ॥५१॥
त॒प्ताय॒ स्वाहा॑ ॥५२॥
घ॒र्माय॒ स्वाहा॑ ॥ ५३ ॥
निष्कृ॑त्यै॒ स्वाहा॑ ॥५४॥
प्राय॑श्च॒त्यै॒ स्वाहा॑ ॥५५ ॥
भेष॒जाय॒ स्वाहा॑ ॥५६॥
य॒माय॒ स्वाहा॑ ॥५७॥
अ॒न्त॑काय॒ स्वाहा॑ ॥५८॥
मृ॒त्यवे॒ स्वाहा॑ ॥५९॥
ब्रह्म॑णे॒ स्वाहा॑ ॥६०॥
ब्र॒ह्म॒ह॒त्यायै॒ स्वाहा॑ ॥६१॥
विश्वे॑भ्यो दे॒वेभ्यः॒ स्वाहा ॥६२॥
द्यावा॑पृथि॒वीभ्या॒ स्वाहा ॥६३॥
इन ६३ तिरसठ मन्त्रों से ६३ तिरसठ आहुति पृथक्-पृथक् देके, निम्नलिखित मन्त्रों से आहुति देवें-
सूर्य॒ चक्षु॑षा॒ गच्छ॒ वात॑मा॒त्मना॒ दिवं॑ च॒ गच्छे पृथिवीं च॒ धर्म॑भिः । अ॒पो वा॒ गच्छ॒ यदि॒ तत्र॑ ते हि॒तमोष॑धीषु॒ प्रति॑ तिष्ठ शरी॑र॒ स्वाहा॑ ॥ १ ॥
सोम एकैभ्यः पवते घृतमेक येभ्यो॒ मधु॑ प्र॒धाव॑ति॒ तांश्च॑दे॒वापि॑ गच्छता॒त् स्वाहा॑ ॥२॥
ये चित्पूर्वं ऋ॒तमा॑ता ऋ॒तजा॑ता ऋता॒वृधः॑ । ऋषी॑स्तप॑स्वतो यम तयो॒जाँ अपि॑ गच्छता॒त् स्वाहा॑ ॥३॥
तप॑सा॒ ये अ॑नाधृष्यास्तप॑सा॒ ये स्व॒र्य॒युः । तपा॒ ये च॑क्रिरे मह॒स्तांश्च॑दे॒वापि॑ गच्छता॒त् स्वाहा॑ ॥४॥
ये युध्य॑न्ते॒ प्र॒धने॑षु॒ शूरा॑सो॒ ये त॑नु॒त्यज॑ः । ये वा॑ स॒हस्र॑दक्षिणा॒स्ता॑श्चि॑िदे॒वापि॑ गच्छता॒त् स्वाहा॑ ॥५॥
स्यो॒नास्मै॑ भव पृथिव्यनृक्षरा नि॒िवेश॑नी । यच्छस्मै॒ शर्म॑ स॒प्रथा॒ स्वाहा॑ ॥६॥
अपे॒मं जी॒वा अ॑रुधन् गृहेभ्यस्तं निर्व॑हत॒ परि॒ ग्रामा॑दि॒तः । मृ॒त्युर्य॒मस्या॑सीद्द्रुतः प्रचे॑ता॒ अस॑न् पि॒तृभ्यो॑ गम॒यां च॑का॒र॒ स्वाहा॑ ॥७॥
य॒मः परोऽव॑रो वि॒वस्वा॒स्तत॒ः परं नाति॑ पश्यामि॒ किं च॒न । य॒मे अ॑ध्व॒रो अधि॑ मे॒ निवि॑ष्टा॒ भुवो॑ वि॒वस्वा॑न॒न्वात॑तान॒ स्वाहा॑ ॥८॥
अपा॑गूहन्न॒मृता॒ मर्त्येभ्यः कृ॒त्वा सव॑र्णामद॒धुर्वव॑स्व॒ते । उ॒ताश्विना॑वभर॒द्यत्तदासी॒दज॒हादु॒ द्वा मि॑थु॒ना स॑र॒ण्यूः स्वाहा॑ ॥९॥
इ॒मौ यु॑न॒ज्म ते॒ असु॑नीताय॒ वोढवे । ताभ्या॑ य॒मस्य॒ साद॑नं॒ समि॑तो॒श्चाव॑ गच्छता॒त्स्वाहा॑ ॥१०॥
इन दश मन्त्रों से दश आहुति देकर-
अग्नये रयिमते स्वाहा ॥१॥
पुरुषस्य सयावर्यपेदघानि मृज्महे । यथा नो अत्र नापर: पुरा जरस आयति स्वाहा ॥२॥
य एतस्य पथो गोप्तारस्तेभ्यः स्वाहा ॥३॥
य एतस्य पथो रक्षितारस्तेभ्यः स्वाहा ॥४॥
य एतस्य पथोऽभिरक्षितारस्तेभ्यः स्वाहा ॥५॥
ख्यात्रे स्वाहा ॥६॥
अपाख्यात्रे स्वाहा ॥७॥
अभिलालपते स्वाहा ॥८॥
अपलालपते स्वाहा ॥९॥
अग्नये कर्मकृते स्वाहा ॥१०॥
यमत्र नाधीमस्तस्मै स्वाहा ॥११॥
अग्नये वैश्वानराय सुवर्गाय लोकाय स्वाहा ॥१२॥
आयातु देवः सुमनाभिरूतिभिर्यमो ह वेह प्रयताभिरक्ता । आसीदताः सुप्रयते ह बर्हिष्यूर्जाय जात्यै मम शत्रुहत्यै स्वाहा ॥१३॥
योsस्य कौष्ठ्य जगतः पार्थिवस्यैक इद्वशी । यमं भङ्ग्यश्रवो गाय यो राजाऽनपरोध्यः स्वाहा ॥१४॥
यमं भङ्ग्यश्रवो यो राजाऽनपरोध्यः । येनाssो नद्यो धन्वानि येन द्यौः पृथिवी दृढा स्वाहा ॥१५॥
हिरण्यकक्ष्यान्त्सुधुरान् हिरण्याक्षानयः शफान् । अश्वाननः शतो दानं यमो राजाभितिष्ठति स्वाहा ॥१६॥
यमो दाधार पृथिवीं यमो विश्वमिदं जगत् । यमाय सर्वमित्तस्थे यत् प्राणद्वायुरक्षितं स्वाहा ॥१७॥
यथा यथा षड् यथा पञ्चदशर्षयः । यमं यो विद्यात् स ब्रूयाद्यथैक ऋषिर्विजानते स्वाहा ॥१८॥
त्रिकद्रुकेभिः पतति षडुर्वीरेकमिद् बृहत् । गायत्री त्रिष्टुप् छन्दासि सर्वा ता यम आहिता स्वाहा ॥१९॥
अहरहर्नयमानो गामश्वं पुरुषं जगत् । वैवस्वतो न तृप्यति पञ्चभिर्मानवैर्यमः स्वाहा ॥२०॥
वैवस्वते विविच्यन्ते यमे राजनि ते जनाः । ये चेह सत्येनेच्छन्ते य उ चानृतवादिनः स्वाहा ॥२१॥
देवांश्च ये नमस्यन्ति ब्राह्मणांश्चापचित्यति स्वाहा ॥२२॥
यस्मिन् वृक्षे सुपलाशे देवैः संपिबते यमः। अत्रा नो विश्पतिः पिता पुराणा अनुवेनति स्वाहा ॥२३॥
उत्ते तभ्नोमि पृथिवीं त्वत्परीमं लोक निदधन्मो अहः रिषम्। एतां स्थूणां पितरो धारयन्तु तेऽत्रा यमः सादनात् ते मिनोतु स्वाहा ॥२४॥
यथाऽहान्यनुपूर्वं भवन्ति यथर्त्तव ऋतुभिर्यन्ति क्लृप्ताः। यथा नः पूर्वमपरो जहात्येवा धातरायूषि कल्पयैषार्थं स्वाहा ॥२५॥
ते राजन्निह विविच्यन्तेऽथा यन्ति त्वामुप। न हि ते अग्ने तनुवै क्रूरं चकार मर्त्यः। कपिर्बभस्ति तेजनं पुनर्जरायुर्गौरिव। अप नः शोशुचदघमग्ने शुशुध्या रयिम्। अप नः शोशुचदघं मृत्यवे स्वाहा ॥२६॥
इन २६ छब्बीस आहुतियों को करके, ये सब ( ओम् अग्नये स्वाहा ) इस मन्त्र से लेके (मृत्यवे स्वाहा ) तक १२१ एक सौ इक्कीस आहुति हुईं, अर्थात् ४ चार जनों की मिलके ४८४ चार सौ चौरासी और जो दो जने आहुति देवें तो २४२ दो सौ बयालीस । यदि घृत विशेष हो तो पुनः इन्हीं १२१ एक सौ इक्कीस मन्त्रों से आहुति देते जायें, यावत् शरीर भस्म न हो जाय तावत् देवें ।
जब शरीर भस्म हो जावे, पुनः सब जने वस्त्र प्रक्षालन स्नान करके जिस के घर में मृत्यु हुआ हो उस के घर की मार्जन, लेपन, प्रक्षालनादि से शुद्धि करके, पृष्ठ ७ – ११ में लिखे प्रमाणे स्वस्तिवाचन, शान्तिकरण का पाठ और पृष्ठ ४-६ में लिखे प्रमाणे ईश्वरोपासना करके, इन्हीं स्वस्तिवाचन और शान्तिकरण के मन्त्रों से, जहां अङ्क, अर्थात् मन्त्र पूरा हो, वहां ‘स्वाहा’ शब्द का उच्चारण करके सुगन्ध्यादि मिले हुए घृत की आहुति घर में देवें कि जिस से मृतक का वायु घर से निकल जाय और शुद्ध वायु घर में प्रवेश करे और सब का चित्त प्रसन्न रहे। यदि उस दिन रात्रि हो जाये तो थोड़ी सी [ आहुति ] देकर, दूसरे दिन प्रातः काल उसी प्रकार स्वस्तिवाचन और शान्तिकरण के मन्त्रों से आहुति देवें । तत्पश्चात् जब तीसरा दिन हो तब मृतक का कोई सम्बन्धी श्मशान में जाकर चिता से अस्थि उठाके उस श्मशान भूमि में कहीं पृथक् रख देवे । बस, इसके आगे मृतक के लिये कुछ भी कर्म कर्तव्य नहीं है, क्योंकि पूर्व ( भस्मान्तः शरीरम् ) यजुर्वेद के मन्त्र के प्रमाण से स्पष्ट हो चुका है कि दाहकर्म और अस्थिसञ्चयन से पृथक् मृतक के लिए दूसरा कोई भी कर्म कर्त्तव्य नहीं है। हां, यदि वह सम्पन्न हो तो अपने जीते जी वा मरे पीछे उस के सम्बन्धी वेदविद्या वेदोक्त धर्म का प्रचार, अनाथपालन, वेदोक्त धर्मोपदेश की प्रवृत्ति के लिए चाहे जितना धन प्रदान करें, बहुत अच्छी बात है ॥