॥ अथ नामकरणसंस्कारविधिं वक्ष्यामः ॥
अत्र प्रमाणम्-नाम चास्मै दद्युः ॥ १ ॥
घोषवदाद्यन्तरन्तः स्थमभिनिष्ठानान्तं द्वयक्षरम् ॥२॥
चतुरक्षरं वा ॥३॥
द्वयक्षरं प्रतिष्ठाकामश्चतुरक्षरं ब्रह्मवर्चसकामः ॥४॥
युग्मानि त्वेव पुंसाम् ॥५॥
अयुजानि स्त्रीणाम् ॥६॥
अभिवादनीयं च समीक्षेत तन्मातापितरौ विदध्यातामो- पनयनात् ॥७॥
-इत्याश्वलायनगृह्यसूत्रेषु ॥
दशम्यामुत्थाप्य पिता नाम करोति-द्वयक्षरं चतुरक्षरं वा घोषवदाद्यन्तरन्तःस्थं दीर्घाभिनिष्ठानान्तं कृतं कुर्यान्न तद्धितम्, अयुजाक्षरमाकारान्तः स्त्रियै । शर्म ब्राह्मणस्य वर्म क्षत्रियस्य गुप्तेति वैश्यस्य ॥
इसी प्रकार गोभिलीय और शौनक गृह्यसूत्र में भी लिखा है ।।
नामकरण – अर्थात् जन्मे हुए बालक का सुन्दर नाम धरे ।
नामकरण का काल – जिस दिन जन्म हो उस दिन से लेके १० दिन छोड़ ग्यारहवें, वा एक सौ एकवें अथवा दूसरे वर्ष के आरम्भ में जिस दिन जन्म हुआ हो, नाम धरे ।
जिस दिन नाम धरना हो, उस दिन अति प्रसन्नता से इष्ट मित्र हितैषी लोगों को बुला, यथावत् सत्कार कर, क्रिया का आरम्भ यजमान बालक का पिता और ऋत्विज करें ।
पुनः पृष्ठ ४ – २१ में लिखे प्रमाणे सब मनुष्य ईश्वरोपासना, स्वस्तिवाचन, शान्तिकरण और सामान्यप्रकरणस्थ सम्पूर्ण विधि करके आघारावाज्यभागाहुति ४ चार और व्याहृति आहुति ४ चार और पृष्ठ २२-२३ में लिखे प्रमाणे ( त्वन्नो अग्ने०) इत्यादि आठ मन्त्रों से ८ आठ आहुति, अर्थात् सब मिलाके १६ घृताहुति करें ।
तत्पश्चात् बालक को शुद्ध स्नान करा, शुद्ध वस्त्र पहिनाके उस की माता कुण्ड के समीप बालक के पिता के पीछे से आ दक्षिण भाग में होकर, बालक का मस्तक उत्तर दिशा में रखके, बालक के पिता के हाथ में देवे । और स्त्री पुनः उसी प्रकार पति के पीछे होकर उत्तर भाग में पूर्वाभिमुख बैठे। तत्पश्चात् पिता उस बालक को उत्तर में शिर और दक्षिण में पग करके अपनी पत्नी को देवे । पश्चात् जो उसी संस्कार के लिए कर्त्तव्य हो, उस प्रथम प्रधान होम को करें । पूर्वोक्त प्रकार घृत और सब शाकल्य सिद्ध कर रखें। उस में से प्रथम घी का चमसा भरके-
ओं प्रजापतये स्वाहा ॥
इस मन्त्र से एक आहुति देकर पीछे जिस तिथि जिस नक्षत्र में बालक का जन्म हुआ हो, उस तिथि और उस नक्षत्र का नाम लेके, उस तिथि और उस नक्षत्र के देवता के नाम से ४ चार आहुति देनी । अर्थात् एक तिथि, दूसरी तिथि के देवता, तीसरी नक्षत्र, और चौथी नक्षत्र के देवता के नाम से, अर्थात् तिथि नक्षत्र और उन के देवताओं के नाम के अन्त में चतुर्थी विभक्ति का रूप और स्वाहान्त बोलके ४ चार घी की आहुति देवे । जैसे किसी का जन्म प्रतिपदा और अश्विनी नक्षत्र में हुआ हो तो –
ओं प्रतिपदे स्वाहा । ओं ब्रह्मणे स्वाहा । ओम् अश्विन्यै स्वाहा। ओम् अश्विभ्यां स्वाहा ॥
तत्पश्चात् पृष्ठ २१ में लिखी हुई स्विष्टकृत् – मन्त्र से एक आहुति और पृष्ठ २१ में लिखे प्रमाणे ४ चार व्याहृति आहुति दोनों मिलके ५ पांच आहुति देके, तत्पश्चात् माता बालक को लेके शुभ आसन पर बैठे। और पिता बालक के नासिका द्वार से बाहर निकलते हुए वायु का स्पर्श करके-
कोऽसि कत॒मो॒ऽसि॒ कस्यसि को नामसि । यस्य॑ ते॒ नामाम॑न्महि॒ यं त्वा॒ सोमे॒नाती॑तृ॒पाम ॥
भूर्भुवः स्वः । सुप्र॒जाः प्र॒जाभिः॑ स्याक्षं सु॒वीरो॑ वी॒रैः सु॒पोषः पोषैः ॥ -यजुः अ० ७। मं० २९ ।।
ओं कोऽसि कतमोऽस्येषोऽस्यमृतोऽसि । आहस्पत्यं मासं प्रविशासौ ॥
जो यह ” असौ ” पद है, इस के पीछे बालक का ठहराया हुआ नाम, अर्थात् जो पुत्र हो तो नीचे लिखे प्रमाणे दो अक्षर का वा चार अक्षर का, घोषसंज्ञक और अन्तःस्थ वर्ण अर्थात् पांचों वर्गों के दो-दो अक्षर छोड़के तीसरा चौथा पांचवाँ और य र ल व-ये चार वर्ण नाम में अवश्य आवें ।
जैसे- देव अथवा जयदेव । ब्राह्मण हो तो देवशर्मा, क्षत्रिय हो तो देववर्मा, वैश्य हो तो देवगुप्त और शूद्र हो तो देवदास इत्यादि । और जो स्त्री हो तो एक, तीन वा पांच अक्षर का नाम रखे-श्री, ह्री, यशोदा, सुखदा, सौभाग्यप्रदा इत्यादि । नामों को प्रसिद्ध बोलके, पुनः “असौ” पद के स्थान में बालक का नाम धरके पुनः (ओं को सि० ) ऊपर लिखित मन्त्र बोलना।
ओं स त्वाह्ने परिददात्वहस्त्वा रात्र्यै परिददातु रात्रि- स्त्वाहोरात्राभ्यां परिददात्वहोरात्रौ त्वार्द्धमासेभ्यः परिदत्तामर्द्ध- मासास्त्वा मासेभ्यः परिददतु मासास्त्वर्तुभ्यः परिददत्वृतवस्त्वा संवत्सराय परिददतु संवत्सरस्त्वायुषे जरायै परिददातु, असौ ॥
इन मन्त्रों से बालक को जैसा जातकर्म में लिख आये हैं, वैसे आशीर्वाद देवें । इस प्रमाणे बालक का नाम रखके संस्कार में आये हुए मनुष्यों को वह नाम सुनाके पृष्ठ २३-२४ में लिखे प्रमाणे महावामदेव्य गान करें ।
तत्पश्चात् कार्यार्थ आये हुए मनुष्यों को आदर सत्कार करके विदा करे । और सब लोग जाते समय पृष्ठ ४-६ में लिखे प्रमाणे परमेश्वर की स्तुतिप्रार्थनोपासना करके बालक को आशीर्वाद देवें कि-
“हे बालक ! त्वमायुष्मान् वर्चस्वी तेजस्वी श्रीमान् भूयाः ।”
बालक ! [ तू] आयुष्मान्, विद्यावान्, धर्मात्मा, यशस्वी, पुरुषार्थी, प्रतापी, परोपकारी, श्रीमान् हो ।