॥ अथ निष्क्रमणसंस्कारविधि वश्याम: ॥
“निष्क्रमण” संस्कार उस को कहते हैं कि जो बालक को घर से जहां का वायुस्थान शुद्ध हो, वहां भ्रमण कराना होता है । उस का समय जब अच्छा देखें तभी बालक को बाहर घुमावें । अथवा चौथे मास में तो अवश्य भ्रमण करावें । इस में प्रमाण-
अतुर्थे मासि निष्क्रमणिका सूर्यमुदीक्षयति-तच्चश्चुरिति ॥
यह आश्वलायन गूह्यसूत्र का वचन हे ।
जननाद्यस्तृतीयो ज्यौत्स्नस्तस्य तृतीयायाम् ॥
-यह पारस्कर गृह्मसूत्र में भी है ॥
अर्थ-निष्क्रमण संस्कार के काल के दो भेद हैं-एक बालक के जन्म के पश्चात् तीसरे शुक्लपक्ष की तृतीया, और दूसरा चौथे महीने में जिस तिथि में बालक का जन्म हुआ हो, उस तिथि में यह संस्कार करे ।
उस संस्कार के दिन प्रातःकाल सूर्योदय के पश्चात् बालक को शुद्ध जल से स्नान करा, शुद्ध सुन्दर वस्त्र पहिनावे । पश्चात् बालक को यज्ञशाला में बालक की माता ले आके पति के दक्षिण पार्श्व में होकर, पति के सामने आकर, बालक का मस्तक उत्तर और छाती ऊपर अर्थात् चित्ता रखके पति के हाथ में देवे । पुनः पति के पीछे की ओर घूमके बांयें पार्श्व में पश्चिमाभिमुख खड़ी रहे ।
ओम् चयत्ते सुसीमे हदयर हितमन्तः प्रजापतौ ।
वेदाहं मन् ये तद् ब्रह्म माहं पौत्रमघं निगाम् ॥१॥
ओम् यत् पृथिव्या अनामृतं दिवि चन्द्रमसि अितम् ।
वेदामृतस्याहं॑ नाम माह पौत्रमघर रिषम् ॥२॥
ओम इन्द्राग्नी शर्म यच्छतं प्रजाये मे प्रजापती ।
यथायं न॒प्रमीयेत पुत्रो जनिव्या अधि ॥३॥
इन तीन मन्त्रों से परमेश्वर की आराधना करके पृष्ठ ४-२३ में लिखे प्रमाणे परमेश्वरोपासना , स्वस्तिवाचन , शान्तिकरण आदि और सामान्यप्रकरणोक्त समस्त विधि कर और पुत्र को देखके इन निम्नलिखित तीन मन्त्रों से पुत्र के शिर को स्पर्श करे-
ओम् अड्भादड़ात् सम्भवसि हृदयादधिजायसे ।
आत्मा बै पुत्र नामासि स जीव शरद: शतम् ॥१॥
ओम् प्रजापतेष्ट्वा हिड्ढारेणावजिप्रामि ।
सहस्त्रायुषचाइसौ जीव शरद: शतम् ॥२॥
गवां त्वा हिल्लारेणावजिप्रामि ।
सहस्त्रायुषचाऔइसौ जीव शरद: शतम् ॥३॥
तथा निम्नलिखित मन्त्र बालक के दक्षिण कान में जपे-
अस्मे प्र य॑न्धि मघवन्नृजीषिन्निन्द्र रायो विश्ववारस्य भूरें: ।
अस्मे श॒तः शरदों जीवसें धा अस्मे वीराज्छश्व॑त इन्द्र शिप्रिन् ॥१॥
इन्द्र श्रेष्ठांनि द्रविंणानि धेहि चित्ति दक्ष॑स्य सुभगत्वमस्मे ।
पोर्ष रयीणामर्रिष्टिं तनूना* स्वाद्यार्नं वाच्र: सुंदिन॒त्वमह्लांम् ॥२॥
इस मन्त्र को वाम कान में जपके पत्नी की गोद में उत्तर दिशा में शिर और दक्षिण दिशा में पग करके बालक को देवे । और मौन करके स्त्री के शिर का स्पर्श करे । तत्पश्चात् आनन्दपूर्वक उठके बालक को सूर्य का दर्शन करावे । और निम्नलिखित मन्त्र वहां बोले-
ओम् तच्चक्षुर्देवहिंतं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत् । पश्येंम श्रद॑:
श॒तं जीवेंम शरद: श॒तः श्रृणुयाम शरद॑: श॒तं प्र ब्रवाम शरद:
शतमदीनाः स्याम शरद॑: श॒तं भूय॑श्च शरद: श॒तात् ॥
इस मन्त्र को बोलके थोडा सा शुद्ध वायु में भ्रमण कराके यज्ञशाला में लावे । सब लोग-
त्वं जीवं शरद: शतं वर्धमान:॥
इस वचन को बोलके आशीर्वाद देवें ।
तत्पश्चात् बालक के माता और पिता संस्कार में आये हुए स्त्रियों और पुरुषों का यथायोग्य सत्कार करके विदा करें ।
तत्पश्चात् जब रात्रि में चन्द्रमा प्रकाशमान हो , तब बालक की माता लड॒के को शुद्ध वस्त्र पहिना दाहिनी ओर से आगे आके पिता के हाथ में बालक को उत्तर की ओर शिर और दक्षिण की ओर पग करके देवे । और बालक की माता दाहिनी ओर से लौट कर बाई ओर आ, अज्जलि में जल भरके चन्द्रमा के सम्मुख खड़ी रहके-
ओ यददश्चन्द्रमसि कृष्णं पृथिव्या हदयर थरितम् । तदहं विद्वार स्तत् पश्यन् माहं पौत्रमघर रुदम् ॥
इस मन्त्र से परमात्मा की स्तुति करके जल को पृथिवी पर छोड देवे ।
तत्पश्चात् बालक की माता पुनः पति के पृष्ठ की ओर से पति के दाहिने पार्श्व से सम्मुख आके, पति से पुत्र को लेके, पुनः पति के पीछे होकर बाई ओर बालक का उत्तर की ओर शिर दक्षिण की ओर पग रखके खड़ी रहे और बालक का पिता जल की अज्जलि भर ( ओं यददश्च० ) इसी मन्त्र से परमेश्वर की प्रार्थना करके जल को पृथ्वी पर छोड॒के दोनों प्रसन् न होकर घर में आवें।