॥ अथ पुंसवनम् ॥
‘पुंसवन’ संस्कार का समय गर्भस्थिति – ज्ञान हुए समय से दूसरे वा तीसरे महीने में है । उसी समय पुंसवन संस्कार करना चाहिये, जिससे पुरुषत्व अर्थात् वीर्य का लाभ होवे । यावत् बालक के जन्म हुए पश्चात् दो महीने न बीत जावें, तब तक पुरुष ब्रह्मचारी रहकर स्वप्न में भी वीर्य को नष्ट न होने देवे । भोजन-छादन शयन – जागरणादि व्यवहार उसी प्रकार से करे, जिस से वीर्य स्थिर रहे, और दूसरा सन्तान भी उत्तम होवे।
अत्र प्रमाणानि
पुमा सौ मित्रावरुणौ पुमासावश्विनावुभौ ।
पुमानग्निश्च वायुश्च पुमान् गर्भस्तवोदरे स्वाहा ॥१॥
पुमानग्निः पुमानिन्द्रः पुमान् देवो बृहस्पतिः ।
पुमासं पुत्रं विन्दस्व तं पुमाननु जायताम् ॥२॥
-सामवेदे
श॒मीम॑श्व॒त्थ आरू॑द॒स्तत्र॒ पुंसव॑नं कृ॒तम् ।
तद्वै पु॒त्रस्य॒ वेद॑नं॒ तत् स्त्रष्वा भ॑रामसि ॥१॥
पुंसि वै रे भवति॒ तत् स्त्रियामनु॑ षिच्यते ।
तद्वै पु॒त्रस्य॒ वेद॑नं तत् प्र॒जाप॑ति॒रब्रवीत् ॥२॥
प्र॒जाप॑ति॒रनु॑म॒तिः सिनीवा॒ल्यचीक्लृपत् ।
स्त्रैषूयम॒न्यत्र॒ दध॑त् पुमा॑समु॒ दधा॑दि॒ह ॥३॥
-अथर्व० का० ६ । सू० ११ ।।
इन मन्त्रों का यही अभिप्राय है कि पुरुष को वीर्यवान् होना चाहिये। इसमें आश्वलायन गृह्यसूत्र का प्रमाण-
अथास्यै मण्डलागारच्छायायां दक्षिणस्यां नासिकायामजीतामोषधीं नस्तः करोति ॥१॥
प्रजावज्जीवपुत्राभ्यां हैके ॥२॥
गर्भ के दूसरे वा तीसरे महीने में वटवृक्ष की जटा वा उसकी पत्ती लेके स्त्री के दक्षिण नासापुट से सुंघावे । और कुछ अन्य पुष्ट अर्थात् गुडूच जो गिलोय वा ब्राह्मी ओषधि खिलावे ।
ऐसा ही पारस्कर गृह्यसूत्र का प्रमाण है-
अथ पुसवनं पुरा स्यन्दत इति मासे द्वितीये तृतीये वा ॥
इस के अनन्तर ‘पुंसवन‘ उस को कहते हैं, जो पूर्व ऋतुदान देकर गर्भस्थिति से दूसरे वा तीसरे महीने में पुंसवन संस्कार किया जाता है। इसी प्रकार गोभिलीय और शौनक गृह्यसूत्रों में भी लिखा है ।
अथ क्रियारम्भ-पृष्ठ ४ से ११ वें पृष्ठ के शान्तिकरण पर्यन्त कहे प्रमाणे (विश्वानि देव०) इत्यादि चारों वेदों के मन्त्रों से यजमान और पुरोहितादि ईश्वरोपासना करें। और जितने पुरुष वहां उपस्थित हों, वे भी परमेश्वरोपासना में चित्त लगावें और पृष्ठ ७-९ में कहे प्रमाणे स्वस्तिवाचन तथा पृष्ठ ९ – ११ में लिखे प्रमाणे शान्तिकरण करके, पृष्ठ १२ में लिखे प्रमाणे यज्ञदेश, यज्ञशाला तथा पृष्ठ १२-१३ में लिखे प्रमाणे यज्ञकुण्ड, यज्ञसमिधा, होम के द्रव्य और स्थालीपाक आदि करके और पृष्ठ १८ – २० में लिखे प्रमाणे ( अयन्त इध्म० ) इत्यादि, ( ओम् अदिते० ) इत्यादि ४ चार मन्त्रोक्त कर्म और आघारावाज्यभागाहुति ४ चार तथा व्याहृति आहुति ४ चार और पृष्ठ २१ में (ओं प्रजापतये स्वाहा ), पृष्ठ २१ में लिखे प्रमाणे (ओं यदस्य कर्मणो० ) दो आहुति देकर नीचे लिखे हुए दोनों मन्त्रों से २ दो आहुति घृत की देवें-
ओम् आ ते गर्भो योनिमेतु पुमान् बाण इवेषुधिम् ।
आ वीरो जायतां पुत्रस्ते दशमास्यः स्वाहा ॥१॥
ओम् अग्निरैतु प्रथमो देवतानां सोऽस्यै प्रजां मुञ्चतु मृत्युपाशात्।
तदयं राजा वरुणोऽनुमन्यतां यथेयं स्त्री पौत्रमघं न रोदात् स्वाहा ॥२॥
इन दोनों मन्त्रों को बोलके दो आहुति किये पश्चात् एकान्त में पत्नी के हृदय पर हाथ धरके यह निम्नलिखित मन्त्र पति बोले-
ओं यत्ते सुसीमे हृदये हितमन्तः प्रजापतौ ।
मन्येऽहं मां तद्विद्वांसं माहं पौत्रमघं नियाम् ॥
तत्पश्चात् पृष्ठ २३ – २४ में लिखे प्रमाणे सामवेद आर्चिक और महावामदेव्यगान गाके जो-जो पुरुष वा स्त्री संस्कार – समय पर आये हों, उन को विदा कर दे । पुनः वटवृक्ष के कोमल कूपल और गिलोय को महीन बांट, कपड़े में छान, गर्भिणी स्त्री के दक्षिण नासापुट में सुंघावे । तत्पश्चात् –
हि॒र॒ण्य॒ग॒र्भः सम॑वर्त॒ताग्रे॑ भू॒तस्य॑ जा॒तः पति॒रेक॑ आसीत् ।
सदा॑धार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा विधेम ॥१॥
-यजुः० अ० १३ । मं० ४।।
अ॒द्भ्यः सम्भृ॑तः पृथि॒व्यै रसच्च वि॒श्वक॑र्म॑ण॒ सम॑वर्त॒ताग्रे॑ ।
तस्य॒ त्वष्टा॑ वि॒दध॑द्रू॒पमे॑ति॒ तन्मर्त्यस्य देव॒त्वमा॒जान॒मग्रे॑ ॥२॥
-यजुः ०अ० ३१। मं० १७ ।।
इन २ दो मन्त्रों को बोलके पति अपनी गर्भिणी पत्नी के गर्भाशय पर हाथ धरके यह मन्त्र बोले-
सुप॒र्णोऽसि म॒रुत्मस्त्रिवृत्ते॒ शिरो॑ गाय॒त्रं चक्षु॑र्बृहद्रथन्त॒रे प॒क्षौ।
स्तोम॑ऽ आ॒त्मा छन्दा॒थ॑स्य॒ङ्गा॑नि॒ यज॑ति॒ नाम॑ ।
साम॑ ते त॒नूर्वा॑मदे॒व्यं य॑ज्ञाय॒ज्ञियं॒ पुच्छ्रं धिष्ण्या॑ श॒फाः ।
सुपर्णोऽसि म॒रुत्मा॒न् दिव॑ गच्छ॒ स्व॒ः पत ॥
-यजु: ० अ० १२ । मं० ४ ।।
इस के पश्चात् स्त्री सुनियम युक्ताहार-विहार करे। विशेषकर गिलोय ब्राह्मी ओषधि और सुंठी को दूध के साथ थोड़ी-थोड़ी खाया करे और अधिक शयन और अधिक भाषण, अधिक खारा, खट्टा, तीखा, कड़वा, रेचक हरड़े आदि न खावे, सूक्ष्म आहार करे । क्रोध, द्वेष, लोभादि दोषों में न फंसे । चित्त को सदा प्रसन्न रखे – इत्यादि शुभाचरण करे ।।