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महर्षि दयानन्द निर्वाण दिवस और शारदीय नवसस्येष्टि पर्व दीपावली के मंत्र और विधि

दीपावली शारदीय नवसस्येष्टि महर्षि दयानन्द निर्वाण दिवस कार्तिक, कृष्ण पक्ष अमावस्या

शरद काल में आने वाली फसल आने पर किया जाने वाला यज्ञ 'शारदीय नवसस्येष्टि' कहलाता है। यह वर्ष के चार प्रमुख त्यौहारों में से एक है। यह त्यौहार शरद काल में कार्तिक की अमावस्या के दिन मनाया जाता है। इस त्यौहार को बड़ी ही धूम धाम से मनाना चाहिए।

यह वैदिक काल से मनाया जा रहा है आज इसकी ऐतिहासिक मान्यताओं को बदल‌कर प्रचार किया जा रहा है जो कि भारतीय वैदिक परम्पराओं तथा सामाजिक और राष्ट्रीय दृष्टि से बहुत ही हानिकर है।

लोगों के बीच एक लोकप्रिय विश्वास है कि मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम चंद्र ने लंका का विजय हासिल करके अयोध्या लौटते समय घरों में घी के दीपक जलाए। उनकी खुशी को व्यक्त करने के लिए। तब से दीपावली की परंपरा जारी है। लेकिन यह त्योहार इससे भी पुराना है और इसका संबंध शरद फसल और मौसम के बदलने से है। हमारे ऋषि ने त्योहारों की शुरुआत बहुत बुद्धिमानी से की थी। कौशीतकि ब्राह्मण (5.1) में इस बारे में उल्लेख किया गया है कि मौसम के बदलने के समय बीमारियां आक्रमण करती हैं। इन्हें अग्निहोत्र द्वारा वनस्पतियों को वातावरण में फैलाकर जवाब देना चाहिए।

इस उद्देश्य के साथ वे मौसम के परिवर्तन के अनुसार विशेष त्योहार आयोजित करते थे ताकि लोग अपने घरों को साफ रख सकें और अग्निहोत्र कर सकें। अग्निहोत्र में घी और मौसम के अनुसार तैयार किए गए सामग्री से बना दवाई रोग के जीवाणुओं को मारता है और वातावरण को साफ़ करता है। दीपावली का त्योहार मौसम के बदलते मौसम के अंत और शुरुआत में पड़ता है। बारिश के मौसम में जीवाणु बहुत तेजी से फैलते हैं। सभी जगह रसोई के लौटे घी के दीपक जलाए जाते थे। इससे नमी हटा दी जाती थी और वातावरण साफ हो जाता था। वैदिक काल से, पूर्णिमा, अमावस्या और नए अनाज की शुरुआत पर यज्ञ करने की परंपरा रही है। दीपावली के दिन दो उद्देश्य होते हैं – यह अमावस्या होती है और नए अनाज भी घर में आते हैं। इसलिए यह त्योहार बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता है।

इस दिन सभी को विश्व कल्याण की भावना से अपने अपने परिवार, संस्था और प्रतिष्ठान आदि में निम्नलिखित विधि से विशेष यज्ञ का अनुष्ठान करना चाहिए।

आज के दिन‌ किये जाने वाले यज्ञ की विधि

  • ० आचमन
  • ० अङ्गस्पर्श
  • ० ईश्वरस्तुतिप्रार्थनाउपासनामन्त्राः
  • ० स्वस्तिवाचनम्
  • ० शान्तिकरणम्
  • ० दैनिक अग्निहोत्र
  • ० अमावस्या का पाक्षिक यज्ञ
  • ० ऋषि निर्वाण दिवस पर विशेष मन्त्रों द्वारा यज्ञ
  • ० नवसस्येष्टि के मन्त्रों से यज्ञ

ऋषि निर्वाण दिवस पर यज्ञ के लिए विशेष मन्त्र

(1) ओ३म् परं मृत्यो अनुपरेहि पन्थां यस्ते स्व इतरो देवयानात्।

चक्षुष्मते श्रृण्वते ते ब्रवीमि मा नः प्रजां रीरिषो मोत वीरान् स्वाहा।।

(2) मृत्योः पदं योपयन्तो यदैत द्राघीय आयुः प्रतरं दधानाः।

आप्यायमानाः प्रजया धनेन शुद्धाः पूता भवत यज्ञियासः स्वाहा।।

(3) इमे जीवा वि मृतैराववृत्रन्नभूद् भद्रा देवहूतिर्नो अद्य।

प्रान्चो अगाम नृतये हसाय द्राघीय आयुः प्रतरं दधानाः स्वाहा।।

(4) इमं जीवेभ्यः परिधि दधामि मैषां नु गादपरो अर्थमेतम्।

शतं जीवन्तु शरदः पुरूचीरन्तर्मृत्युं दधतां पर्वतेन स्वाहा।।

(5) यथाहान्यनुपूर्वं भवन्ति यथा ऋतव ऋतुभिर्यन्ति साधु।

यथा नः पूर्वमपरो जहात्येवा धातरायूँषि कल्पयैषाम् स्वाहा।।

  • ऋ. 10। 18। 1-5।।

(6) ओ३म् आयुष्मतामायुष्कृतां प्राणेन जीव मा मृथाः।

व्यहं सर्वेण पाप्मना वि यक्ष्मेण समायुषा स्वाहा।।

(7) ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमपाघ्नत।

इन्द्रो ह ब्रह्मचर्य्यण देवेभ्यः स्वराभरत् स्वाहा।।

-अथर्व. 11। 5 । 11 ।।

नवसस्येष्टि के मन्त्र

( हवन सामग्री में खील बतासे मिला लें )

(8) ओ३म् शतायुधाय शतवीर्याय शतोतयेऽभिमातिषाहे।

शतं यो नः शरदो अजीजादिन्द्रो नेषदति दुरितानि विश्रा स्वाहा।।

(9) ये चत्वारः पथयो देवयाना अन्तरा द्यावापृथिवी वियन्ति। तेषां

यो आ ज्यानिमजीजिमावहास्तस्मै नो देवाः परिदत्तेह सर्वं स्वाहा।।

(10) ग्रीष्मो हेमन्त उत नो वसन्तः शरद्वर्षाः सुवितन्नो अस्तु।

तेषामृतूनागूंग शतशारदानां निवात एषामभये स्याम स्वाहा।।

(11) इद्वत्सराय परिवत्सराय संवत्सराय कृणुता बृहन्नमः।

तेषां वयं सुमतौ यज्ञियानां ज्योग् जीता अहताः स्याम स्वाहा।।

**-गोभिलीय गृह्यसूत्र प्रपाठक, खण्ड ७। सूत्र 10-11।। म. ब्रा. 2 । 1। 9-12।।

(12) ओं पृथिवी द्यौः प्रदिशो दिशो यस्मै द्युभिरावृताः।

तमिहेन्द्रमुपह्नये शिवा नः सन्तु हेतयः स्वाहा।।

(13) ओं यन्मे किन्चिदुपेप्सितमस्मिन् कर्मणि वृत्रहन्।

तन्मे सर्व समृध्यतां जीवतः शरदः शतम् स्वाहा।।

(14) ओं सम्पत्तिर्भूमिर्वृष्टिज्यैंष्ठ्यं श्रैष्ठयं श्रीः प्रजामिहावतु स्वाहा।।

इदमिन्द्राय इदन्न मम।।

(15) ओं यस्याभावे वैदिकलौकिकानां भूतिर्भवति कर्मणाम्।

इन्द्रपत्नीमुपह्नये सीतागूंग सा मे त्वनपायिनी भूयात् कर्मणि स्वाहा।।

इदमिन्द्रपत्न्यै इदन्न मम।।

(16) ओम् अश्वावती गोमती सूनृतावती बिभर्ति या प्राणभृताम् अतन्द्रिता ।

खलमालिनीमुर्वरामस्मिन् कर्मण्युपह्नये ध्रुवागूंग

सा मे त्वनपायिनी भूयात् स्वाहा।। इदं सीतायै इदन्न मम।।

(17) ओ३म् सीतायै स्वाहा।

(18) ओं प्रजायै स्वाहा।

(19) ओं शमायै स्वाहा।

(20) ओं भूत्यै स्वाहा।

  • पार. का. 2। क. 17। मंत्र 7, 9, 10 ।।

(21) ओ३म् व्रीहयश्च मे यवाश्च में माषाश्च मे तिलाश्च मे मुद्गाश्च

मे खल्वाश्च मे प्रियङ्गवश्च मेऽणवश्च मे श्यामाकाश्च मे

नीवाराश्च मे गोधूमाश्च मे मसूराश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् स्वाहा।।

-यजु. 18। 12।।

(22) ओ३म् वाजो नः सप्त प्रदिशश्चतस्त्रो वा परावतः।

वाजो नो विश्वैर्देवैर्धनसाताविहावतु स्वाहा।।

(23) ओ३म् वाजो नो अद्य प्रसुवाति दानं वाजो देवां २ ऋतुभिः

कल्पयाति। वाजो हि मा सर्ववीरं जजान विश्वा आशा वाजपतिर्जयेयम् स्वाहा।।

(24) ओं वाजः पुरस्तादुत मध्यतो नो वाजो देवान् हविषा वर्धयाति।

वाजो हि मा सर्ववीरं चकार सर्वा आशा वाजपतिर्भवेयम् स्वाहा।।

-यजुर्वेद 18। 32-35।।

(25) ओ३म् सीरा युन्जन्ति कवयो युगा वि तन्वते पृथक् धीरा देवेषु सुम्नयौ स्वाहा।।

(26) युनक्त सीरा वियुगा तनोत कृते योनौ वपतेह बीजम्।

विराजः श्रुष्टिः सभरा असन्नो नेदीय इत्सृण्यः पक्वमायवन् स्वाहा।।

(27) लाङ्गलं पवीरवत् सुशीमं सेामसत्सरु।

उदिद्वपतु गामविं प्रस्थावद्रथवाहनं पीवरीं च प्रफर्व्यम् स्वाहा।।

(28) इन्द्रः सीतां निगृह्नातु तां पूषाभिरक्षतु।

सा नः पयस्वती दुहामुत्तरामुत्तरां समाम् स्वाहा।।

(29) शुनं सुफाला वि तुदन्तु भूमिं शुनं कीनाशा अनु यन्तु वाहान्।

शुनासीरा हविषा तोशमाना सुपिप्पला औषधीः कर्तमस्मै स्वाहा।।

(30) शुनं वाहाः शुनं नरः शुनं कृषतु लाङ्गलम्।

शुनं वरत्रा बध्यन्तां शुनमष्ट्रामुदिङ्गय स्वाहा।।

(31) शुनासीरेह स्म मे जुषेथाम्।

यद्दिवि चक्रथुः पयस्तेनेमामुपसिन्चतम् स्वाहा।।

(32) सीते वन्दामहे त्वार्वाची सुभगे भव।

यथा नः सुमना असो यथा नः सुफला भवः स्वाहा।।

 (33) घृतेन सीता मधुना समक्ता विश्वैर्देवैरनुमता मरुतिभ्यः।

सा नः सीते पयसाभ्याववृत्स्वोर्जस्वती घृतवत्पिन्वमाना स्वाहा।।

  • अथर्व. 3। 17।1-9।।

(34) इन्द्राग्निभ्यां स्वाहा।। इदमिन्द्राग्निभ्यां इदन्न मम।

(35) विश्वेभ्यो देवेभ्यः स्वाहा।।

 इदं विश्वेभ्यों देवेभ्य इदन्न मम।

(36) द्यावापृथिवीभ्यां स्वाहा।।

 इदं द्यावापृथिवीभ्यांम् इदन्न मम।

(37) स्विष्टमग्ने अभि तत्पृणीहि विश्चांश्च देवः पृतना अभिष्यक्।

सुगन्नु पन्थां प्रदिशन्न एहि ज्योतिष्मध्ये ह्यजरं न आयुः स्वाहा।।

(38) यदस्य कर्मणोऽत्यरीरिचं यद्वा न्यूनमिहाकरम्। अग्निष्टत्स्विष्ट-

कृद्विद्यात्सर्वं स्विष्टं सुहुतं करोतु मे अग्नये स्विष्टकृते सुहुतहुते

सर्वप्रायश्चित्ताहुतीनां कामानां समर्द्धयित्रे सर्वान्नः कामान्त्समर्द्धय स्वाहा।।

इदमग्नये स्विष्टकृते इदन्न मम। -पार. 1। 2। 10।।

पूर्णाहुति

ओ३म् सर्वं वै पूर्णं स्वाहा।

ओ३म् सर्वं वै पूर्णं स्वाहा।

ओ३म् सर्वं वै पूर्णं स्वाहा।